الفتوحات المكية

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﴿مٰا يُبَدَّلُ الْقَوْلُ لَدَيَّ﴾ [ق:29] أي قولنا واحد لا يقبل التبديل و «قال صلى اللّٰه عليه و سلم كل مولود يولد على الفطرة» فالألف و اللام هنا للعهد أي الفطرة التي فطر اللّٰه الناس عليها و قد تكون الألف و اللام لجنس الفطر كلها لأن الناس أي هذا الإنسان لما كان مجموع العالم ففطرته جامعة لفطر العالم

[فطرة آدم فطر جميع العالم]

ففطرة آدم فطر جميع العالم فهو يعلم ربه من حيث كل علم نوع من العالم من حيث هو عالم ذلك النوع بربه من حيث فطرته و فطرته ما يظهر به عند وجوده من التجلي الإلهي الذي يكون له عند إيجاده ففيه استعداد كل موجود من العالم فهو العابد بكل شرع و المسبح بكل لسان و القابل لكل تجلى إذا و في حقيقة إنسانيته و علم نفسه فإنه لا يعلم ربه إلا من علم نفسه فإن حجبه شيء منه عن درك كله فهو الجاني على نفسه و ليس بإنسان كامل و لهذا «قال رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم كمل من الرجال كثيرون و لم يكمل من النساء إلا مريم و آسية» يعني بالكمال معرفتهم بهم و معرفتهم بهم هو عين معرفتهم بربهم فكانت فطرة آدم علمه به فعلم جميع الفطر و لهذا قال ﴿وَ عَلَّمَ آدَمَ الْأَسْمٰاءَ كُلَّهٰا﴾ [البقرة:31] و كل يقتضي الإحاطة و العموم الذي يراد به في ذلك الصنف و أما الأسماء الخارجة عن الخلق و النسب فلا يعلمها إلا هو لأنه لا تعلق لها بالأكوان و هو «قوله عليه السلام في دعائه أو استأثرت به في علم غيبك» يعني من الأسماء الإلهية و إن كان معقول الأسماء مما يطلب الكون و لكن الكون لا نهاية لتكوينه فلا نهاية لأسمائه فوقع الإيثار في الموضع الذي لا يصح وجوده إذ كان حصر تكوين ما لا يتناهى محال و أما الذات من حيث هي فلا اسم لها إذ ليست محل أثر و لا معلومة لأحد و لا ثم اسم يدل عليها معرى عن نسبة و لا بتمكين فإن الأسماء للتعريف و التمييز و هو باب ممنوع لكل ما سوى اللّٰه فلا يعلم اللّٰه إلا اللّٰه

[الأسماء الإلهية بنا و لنا و مدارها علينا]

فالأسماء بنا و لنا و مدارها علينا و ظهورها فينا و أحكامها عندنا و غاياتها إلينا و عباراتها عنا و بداياتها منا

فلولاها لما كنا *** و لولانا لما كانت



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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