الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 3349 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

[الأولياء الأحباب:المحبوبون و المحبون]

و منهم رضي اللّٰه عنهم الأحباب و لا عدد لهم بحصرهم بل يكثرون و يقلون قال تعالى ﴿فَسَوْفَ يَأْتِي اللّٰهُ بِقَوْمٍ يُحِبُّهُمْ وَ يُحِبُّونَهُ﴾ [المائدة:54] فمن كونهم محبين ابتلاهم و من كونهم محبوبين اجتباهم و اصطفاهم أعني في هذه الدار و في القيامة و أما في الجنة فليس يعاملهم الحق إلا من كونهم محبوبين خاصة و لا يتجلى لهم إلا في ذلك المقام و هذه الطائفة على قسمين قسم أحبهم ابتداء و قسم استعملهم في طاعة رسوله طاعة لله فأثمرت لهم تلك محبة اللّٰه إياهم قال تعالى ﴿مَنْ يُطِعِ الرَّسُولَ فَقَدْ أَطٰاعَ اللّٰهَ﴾ [النساء:80] و قال لمحمد صلى اللّٰه عليه و سلم ﴿قُلْ إِنْ كُنْتُمْ تُحِبُّونَ اللّٰهَ فَاتَّبِعُونِي يُحْبِبْكُمُ اللّٰهُ﴾ [آل عمران:31] فهذه محبة قد نتجت لم تكن ابتداء و إن كانوا أحبابا كلهم

يا قوم أذني لبعض الحي عاشقة *** و الأذن تعشق قبل العين أحيانا

فلا خفاء فيما بينهم من المنازل و ما من مقام من المقامات و إلا و أهله فيه بين فاضل و مفضول و هؤلاء الأحباب علامتهم الصفاء فلا يشوب ودهم كدر أصلا و لهم الثبات على هذه القدم مع اللّٰه و هم مع الكون بحسب ما يقام فيه ذلك الكون من محمود و مذموم شرعا فيعاملونه بما يقتضيه الأدب فهم يوالون في اللّٰه و يعادون في اللّٰه تعالى فالموالاة من حيث وجود المكون و المعاداة و الذم من حيث عين المتكون لا من حيث ما اتصف به من الكون لأن الكون كون اللّٰه فهم يحكمون و لا يحكمون قد مكنهم اللّٰه من أنفسهم و أقامهم في حضرة الأدب فهم الأدباء الجامعون للخيرات «يقول اللّٰه تعالى فيمن ادعى هذا المقام يا عبدي هل عملت لي عملا قط فيقول العبد يا رب صليت و جاهدت و فعلت و فعلت و يصف من أحوال الخير فيقول اللّٰه له ذلك لك فيقول العبد يا رب فما هو العمل الذي هو لك فيقول هل واليت في وليا أو عاديت في عدوا»



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!