الفتوحات المكية

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أي وفقكم لمثل هذا و بين لكم ما تستحقونه مما يستحقه تعالى ﴿وَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ﴾ [البقرة:185] فجعل ذلك نعمة يجب الشكر منا عليها لكوننا نقبل الزيادة و الشكر صفة إلهية ﴿فَإِنَّ اللّٰهَ شٰاكِرٌ عَلِيمٌ﴾ [البقرة:158] فطلب منا بهذه الصفة الزيادة لكونه شاكرا فإنه قال ﴿لَئِنْ شَكَرْتُمْ لَأَزِيدَنَّكُمْ﴾ [ابراهيم:7] فنبهنا بما هو مضمون الشكر لنزيده في العمل

[و إذا سألك عبادي عني]

﴿وَ إِذٰا سَأَلَكَ عِبٰادِي عَنِّي﴾ [البقرة:186] لكونك حاجب الباب ﴿فَإِنِّي قَرِيبٌ﴾ [البقرة:186] بما شاركناهم فيه من الشكر و الصوم الذي هو لي فأمرناهم بالصوم و عرفناهم أنه لنا ما هو لهم فمن تلبس به تلبس بما هو خاص لنا فكان من أهل الاختصاص مثل أهل القرآن هم أهل اللّٰه و خاصته ﴿أُجِيبُ دَعْوَةَ الدّٰاعِ﴾ [البقرة:186] على بصيرة ﴿إِذٰا دَعٰانِ﴾ [البقرة:186] يقول كما جعلناك تدعو الناس ﴿إِلَى اللّٰهِ عَلىٰ بَصِيرَةٍ﴾ [يوسف:108] جعلنا الداعي الذي يدعونا إليه على بصيرة من إجابتنا إياه ما لم يقل لم يستجب لي ﴿فَلْيَسْتَجِيبُوا لِي﴾ [البقرة:186] أي لما دعوتهم لي من طاعتي و عبادتي فإني ﴿مٰا خَلَقْتُ الْجِنَّ وَ الْإِنْسَ إِلاّٰ لِيَعْبُدُونِ﴾ [الذاريات:56] فدعوتهم إلى ذلك على ألسنة رسلي و في كتبي المنزلة التي أرسلت رسلي بها إليهم و أكد ذلك بالسين أعني الاستجابة لما علم من إبايتنا و بعدنا عن إجابته لي أي من أجلي لا تعلمون ذلك رجاء تحصيل ما عندي فتكونون عبيد نعمة لا عبيدي و هم عبيدي طوعا و كرها لا انفكاك لهم من ذلك

[حقيقة الإيمان]

﴿وَ لْيُؤْمِنُوا بِي﴾ [البقرة:186] يصدقوا بإجابتي إياهم إذا دعوني و ليكن إيمانهم بي لا بأنفسهم لأنه من آمن بنفسه لا بالله لم يستوعب إيمانه ما استحقه فإذا آمن بي و في الأمر حقه فأعطى كل ذي حق حقه و هذا هو الذي يصدق بالأخبار كلها و من آمن بنفسه فإنه مؤمن بما أعطاه دليله و الذي أمرته بالإيمان به متناقض الدلالة متردد بين تشبيه و تنزيه فالذي يؤمن بنفسه يؤمن ببعض و يكفر ببعض تأويلا لا ردا فمن تأول فإيمانه بعقله لا بي و من ادعى في نفسه أنه أعلم بي مني فما عرفني و لا آمن بي فهو عبد يكذبني فيما نسبته إلى نفسي بحسن عبارة فإذا سئل يقول أردت التنزيه و هذا من حيل النفوس بما فيها من العزة و طلب الاستقلال و الخروج عن الاتباع ﴿لَعَلَّهُمْ يَرْشُدُونَ﴾ [البقرة:186]



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