الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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(وفق مخطوطة قونية)

﴿تَعْلَمُ مٰا فِي نَفْسِي﴾ [المائدة:116] من حيث عينها و لا أعلم ما في نفسك من حيث وجودها و هو من حيث ما هي لك و النفس

[النفس واحدة الذات متعددة النسب و الإضافات]

و إن كانت واحدة اختلفت الإضافات لاختلاف النسب فلا بعارض قوله ﴿فَلاٰ تُزَكُّوا أَنْفُسَكُمْ﴾ [ النجم:32] ما ذكرناه من قوله ﴿قَدْ أَفْلَحَ مَنْ زَكّٰاهٰا﴾ [الشمس:9] فإن أنفسكم هنا يعني أمثالكم «قال النبي صلى اللّٰه عليه و سلم لا أزكي على اللّٰه أحدا» و سيرد الكلام إن شاء اللّٰه في هذا الباب في وجوب الزكاة و على من تجب و فيما تجب فيه و في كم تجب و من كم تجب و متى تجب و متى لا تجب و لمن تجب و كم يجب له من تجب له باعتبارات ذلك كله في الباطن بعد أن نقررها في الظاهر بلسان الحكم المشروع كما فعلنا في الصلاة لنجمع بين الظاهر و الباطن لكمال النشأة

[الاعتبار في الجمع بين الظاهر و الباطن]

فإنه ما يظهر في العالم صورة من أحد من خلق اللّٰه بأي سبب ظهرت من أشكال و غيرها إلا و لتلك العين الحادثة في الحس روح تصحب تلك الصورة و الشكل الذي ظهر فإن اللّٰه هو الموجد على الحقيقة لتلك الصورة بنيابة كون من أكوانه من ملك أو جن أو إنس أو حيوان أو نبات أو جماد و هذه هي الأسباب كلها لوجود تلك الصورة في الحس فلما علمنا أن اللّٰه قد ربط بكل صورة حسية روحا معنويا بتوجه إلهي عن حكم اسم رباني لهذا اعتبرنا خطاب الشارع في الباطن على حكم ما هو في الظاهر قد ما بقدم لأن الظاهر منه هو صورته الحسية و الروح الإلهي المعنوي في تلك الصورة هو الذي نسميه الاعتبار في الباطن من عبرت الوادي إذا جزته و هو قوله تعالى ﴿إِنَّ فِي ذٰلِكَ لَعِبْرَةً لِأُولِي الْأَبْصٰارِ﴾ [آل عمران:13] و قال



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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