الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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أي صلوا له فسأل ابن عمر لو كنت مسبحا أتممت يريد مصليا تماما غير قصر و لهذا قال ﴿بُكْرَةً وَ أَصِيلاً﴾ [الفرقان:5] يعني صلاة الغداة و العشي و كذلك قال ﴿فَسُبْحٰانَ اللّٰهِ حِينَ تُمْسُونَ وَ حِينَ تُصْبِحُونَ﴾ [الروم:17] ... ﴿وَ عَشِيًّا وَ حِينَ تُظْهِرُونَ﴾ [الروم:18] فجمع الصلوات الخمس في هذه الآية ﴿وَ لَهُ الْحَمْدُ﴾ [الروم:18] أي الثناء انطلق ﴿فِي السَّمٰاوٰاتِ وَ الْأَرْضِ﴾ [البقرة:116] فأما تقدير الكلام فلما قال هذا و أمرنا بالذكر و الصلاة قال ﴿هُوَ الَّذِي يُصَلِّي عَلَيْكُمْ﴾ [الأحزاب:43] فأخبر أنه يصلي علينا فالمفهوم من هذا أمران الأمر الواحد أنه يصلي علينا فينبغي لنا أن نذكره بالمدح و الثناء و نصلي له ﴿بُكْرَةً وَ أَصِيلاً﴾ [الفرقان:5] فإن في ذلك غذاء العقول و الأرواح كما إن غذاء الجسم في هذه الأوقات في قوله ﴿لَهُمْ رِزْقُهُمْ فِيهٰا بُكْرَةً وَ عَشِيًّا﴾ [مريم:62] و رزق كل مخلوق بحسب ما تطلبه حقيقته فالأرواح غذاؤها في التسبيح فقيل لها سبحه أي صل له في هذه الأوقات و اذكره على كل حال فقيد التسبيح و ما قيد الذكر بوقت فعلمنا إن التسبيح ذكر خاص مربوط بهذه الأوقات و الأمر الآخر إنكم إذا صليتم و ذكرتم اللّٰه فإنه يصلي عليكم فصلاتنا و ذكرنا له سبحانه بين صلاتين من اللّٰه تعالى صلى علينا فصلينا له فصلى علينا فمن صلاته الأولى علينا صلينا له و من صلاته الثانية علينا كانت السعادة لنا بأن جنينا ثمرة صلاتنا له و ذكرنا ثم قال ﴿وَ مَلاٰئِكَتُهُ﴾ [النساء:136] أيضا تصلي عليكم بما قد شرع لها من ذلك و هو قوله ﴿رَبَّنٰا وَسِعْتَ كُلَّ شَيْءٍ رَحْمَةً وَ عِلْماً فَاغْفِرْ لِلَّذِينَ تٰابُوا وَ اتَّبَعُوا سَبِيلَكَ وَ قِهِمْ عَذٰابَ الْجَحِيمِ رَبَّنٰا وَ أَدْخِلْهُمْ جَنّٰاتِ عَدْنٍ الَّتِي وَعَدْتَهُمْ وَ مَنْ صَلَحَ مِنْ آبٰائِهِمْ وَ أَزْوٰاجِهِمْ وَ ذُرِّيّٰاتِهِمْ إِنَّكَ أَنْتَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ وَ قِهِمُ السَّيِّئٰاتِ وَ مَنْ تَقِ السَّيِّئٰاتِ يَوْمَئِذٍ﴾ يعني القيامة و المعصومين من وقوع السيئات منهم



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