الفتوحات المكية

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(وصل اعتبار البروز إلى الاستسقاء)

الاستسقاء له حالان الحال الواحدة أن يكون الإمام في حال أداء واجب فيطلب منه الاستسقاء فيستسقي على حالته تلك من غير تغيير و لا خروج عنها و لا صلاة و لا تغير هيأة بل يدعو اللّٰه و يتضرع في ذلك فحال هذا بمنزلة من يكون حاضرا مع اللّٰه فيما أوجب اللّٰه عليه فيتعرض له في خاطره ما يؤديه إلى السؤال في أمر لا يؤثر السؤال فيه في ذلك الواجب الذي هو بصدده بل ربما هو مشروع فيه كمسألتنا أ لا ترى «أن الشارع قد شرع للمصلي أن يقول في جلوسه بين السجدتين اللهم اغفر لي و ارحمني و ارزقني و اجبرني» فشرع له في الصلاة طلب الرزق و الاستسقاء طلب الرزق فليس لمن هذه حالته أن يبرز إلى خارج المصر و لا يغير هيأته فإنه في أحسن الحالات و على أحسن الهيئات لأن أفضل الأمور أداء الواجبات «دخل أعرابي على رسول» «اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم يوم الجمعة من باب المسجد و رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم يخطب على المنبر خطبة الجمعة فشكا إليه الجدب فطلب منه أن يستسقي اللّٰه فاستسقى له ربه كما هو على منبره و في نفس خطبته ما تغير عن حاله و لا أخر ذلك إلى وقت آخر»

[المضطر تجاب دعوته بلا شك]

و أما الحالة الأخرى فهو أن لا يكون العبد في حال أداء واجب فيعرض له ما يؤديه إلى أن يطلب من ربه ابتداء في حق نفسه أو غيره مما يحتاج أن يتأهب له أهبة جديدة على هيأة مخصوصة فيتأهب لذلك الأمر و يؤدي بين يديه أمرا واجبا ليكون بحكم عبودية الاضطرار فإن المضطر تجاب دعوته بلا شك كذلك العبد إذا لم يكن في حال أداء واجب و أراد الاستسقاء برز إلى المصلي و جمع الناس و صلى ركعتين فالشروع في تلك الصلاة عبودية اختيار و أداء ما فيها من قيام و ركوع و سجود و جلوس عبودية اضطرار فإنه يجب عليه في الصلاة النافلة بحكم الشروع الركوع و السجود و كل ما هو فرض في الصلاة فإذا دعا عقيب عبودية الاضطرار فقمن أن يستجاب له و يدخل في الهيئة الخاصة من رفع اليد و تحويل الرداء و استقبال القبلة و التضرع إلى اللّٰه و الابتهال في حق المحتاجين إلى ذلك كائنا من كان و لما ذكرناه وقع الخلاف في البروز إلى الاستسقاء و



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