الفتوحات المكية

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فجعل المسارعة فيها و في الأولى إليها فإنها ما هي نائبة عنه و هنا وجه أيضا و ذلك أن المغفرة لا تصح إلا بعد حصول فعل الخير الموجب لها فنحن نسارع في الخيرات إلى المغفرة فكان المسارع فيه غير المسارع إليه فالعبد إذا كان تصرفه في غير المباح فلا بد أن يكون في مندوب أو واجب فإن كان في مندوب و استشعر بحصول وقت واجب سارع إليه في مندوبة بإقامة أسبابه التي لا يصح ذلك الواجب إلا بها و معنى المسارعة هنا المبادرة إلى الأفعال التي هي شرط في صحة ذلك الواجب فمن رأى الجماعة واجبة و من قال بإتمام الصف و وجوبه و هو في خير فإنه آت إلى الصلاة مثلا فيسمع الإقامة فأمره الشارع أن يأتي إليه و عليه وقار و سكينة و سبب ذلك أن الحق لا يتقيد بالأحوال و أن الآتي إلى الصلاة في صلاة ما دام يأتي إليها أو ينتظرها فنفس الإسراع المشروع قد حصل و أما الإسراع بالحركة فإنه يقتضي سوء الأدب و تقييد الحق و لهذا «قال رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم للذي دب و هو راكع حتى دخل الصف و هو أبو بكرة زادك اللّٰه حرصا و لا تعد» يعني إلى إسراع الحركة و ما قال له زادك اللّٰه إسراعا فإن الحرص أوجب له الإسراع فنبهه رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم على إن الحرص على الخير هو المطلوب و هو الإسراع المطلوب لله من العبد لا حركة الاقدام فإن ذلك يؤذن بتحديد اللّٰه و اللّٰه مع العبد حيث كان و قد وقع لك التفريط أولا بتأخرك فهنالك كان ينبغي لك الإسراع بالتأهب كما حكي عن بعضهم أنه ما دخل عليه منذ أربعين سنة وقت صلاة إلا و هو في المسجد و حكي عن آخر أنه بقي كذا سنة ما فاتته تكبيرة الإحرام مع الإمام و قوله بوقار يشير أن العبد ينبغي له أن يعامل اللّٰه في نفسه بما يستحقه من الجلال و الهيبة و الحياء فإن هذه الأحوال تؤثر ثقلا في الجوارح و تثبت الموازنة حركته مع اللّٰه أن يقع منه كما أمره اللّٰه بخضوع و خشوع و هو السكينة المطلوبة كما قال لو خشع قلبه لخشعت جوارحه يعني لسرى ذلك في جوارحه فإن السرعة بالإقدام لا تكون إلا ممن همته متعلقة بالجهة التي يسارع إليها من أجل اللّٰه لا بالله و ينبغي للعبد أن تكون همته متعلقة بالله فيكون المشهود له الحق تعالى و من كان بهذه المثابة كانت حالته الهيبة و السكون فلا تسمع إلا همسا قال تعالى ﴿وَ خَشَعَتِ الْأَصْوٰاتُ لِلرَّحْمٰنِ فَلاٰ تَسْمَعُ إِلاّٰ هَمْساً﴾ [ طه:108]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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