الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 1720 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

﴿وَ مَحْيٰايَ وَ مَمٰاتِي﴾ [الأنعام:162] أي و حالة حياتي و حالة موتي

[لله رب العالمين]

ثم قال ﴿لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰالَمِينَ﴾ [الفاتحة:2] أي لله أي إيجاد ذلك كله لله لا لي أي ظهور ذلك في من أجل اللّٰه لا من أجل ما يعود علي في ذلك من الخير فإن اللّٰه يقول ﴿وَ مٰا خَلَقْتُ الْجِنَّ وَ الْإِنْسَ إِلاّٰ لِيَعْبُدُونِ﴾ [الذاريات:56] فجعل العلة ترجع إلى جنابه لا إلي فلم يكن القصد الأول الخير لنا و إنما كان الإيثار في ذلك لجناب الحق الذي ينبغي له الإيثار فكان تعليما لنا من الحق و تنبيها و هو قول رابعة أ ليس هو أهلا للعبادة فالعالم من عبد اللّٰه لله و غير العالم يعبده لما يرجوه من اللّٰه من حظوظ نفسه في تلك العبادة فلهذا شرع لنا أن نقول ﴿لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰالَمِينَ﴾ [الفاتحة:2] أي سيد العالمين و مالكهم و مصلحهم لما شرع لهم و بين حتى لا يتركهم في حيرة كما قال تعالى في معرض الامتنان على عبده و وجدك ضالا فهدى أي حائرا فبين لك طريق الهدى من طريق الضلالة فطريق الهدى هنا هو معرفة ما خلقك من أجله حتى تكون عبادتك على ذلك فتكون على بينة من ربك

[لا شريك له و بذلك أمرت و أنا أول المسلمين]

ثم قال ﴿لاٰ شَرِيكَ لَهُ وَ بِذٰلِكَ أُمِرْتُ وَ أَنَا أَوَّلُ الْمُسْلِمِينَ﴾ [الأنعام:163] أي لا إله في هذا الموضع مقصود بهذه العبادة إلا اللّٰه الذي خلقني من أجلها أي لا أشرك فيها نفسي بما يخطر له من الثواب الذي وعده اللّٰه لمن هذه صفته و قد ذهب بعضهم إلى الحضور مع الثواب في حال هذه العبادة و كفر من لم يقل به و هذا ليس بشيء و هو من أكابر المتكلمين غير أنه لم يكن من العلماء بالله من طريق الأذواق بل كان من أهل النظر الأكابر منهم و رد على العدوية فيما قالته و لا يعتبر عندنا ما يخالفنا فيه علماء الرسوم إلا في نقل الأحكام المشروعة فإن فيها يتساوى الجميع و يعتبر فيها المخالف بالقدح في الطريق الموصل أو في المفهوم باللسان العربي و أما في غير هذا فلا يعتبر إلا مخالفة الجنس و هذا سار في كل صنف من العلماء بعلم خاص و قوله و بذلك أمرت يعود على الجملة كلها و على كل جزء جزء منها بحسب ما يليق بذلك الجزء فلا يحتاج إلى ذكره مفصلا إذ قد حصل التنبيه على ما فيه ﴿لِمَنْ كٰانَ لَهُ قَلْبٌ أَوْ أَلْقَى السَّمْعَ وَ هُوَ شَهِيدٌ﴾ [ق:37]



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!