الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

كما هو ولي للمؤمنين فهم عبيده أعداؤه فكيف حال عبيده بعضهم مع بعض بما فيهم من التنافس و التحاسد فإذا سأل العارف من اللّٰه هذا التطهير بعد تكبيرة الإحرام عند ذلك يشرع في التوجيه

(وصل متمم لأكمل صلاة في التوجيه)

[العالم بالله يعمد إلى أكمل الصلوات عند اللّٰه]

و إنما ذكرنا هذا لأن العالم بالله يعمد إلى أكمل الصلوات عند اللّٰه في حالاتها من أقوال و أفعال و إن لم يكن بطريق الوجوب و لكن أولياء اللّٰه أولى بصورة الكمال في العبادات لأنهم يناجون من له الكمال المحقق بما يجب له فإن ذلك واجب عليهم أوجبته معرفتهم و شهودهم

[توجيه الوجه عن شرع الرب]

ابتداء التوجيه فيقول العبد وجهت وجهي فأضاف العبد الوجه إلى نفسه عن شرع ربه له فيه أدبا مع اللّٰه بحضوره مع الحق في أنه لسانه الذي يتكلم به و دعاه إلى هذه الإضافة قوله تعالى بيني و بين عبدي فأثبته و إنما هو بالحقيقة مضاف إلى سيده فإن العبد الأديب العارف هو وجه سيده إذ لا ينبغي أن يضاف إلى العبد شيء فهو المضاف و لا يضاف إليه فإذا أضاف السيد نفسه إليه فهو على جهة التشريف و التعريف مثل قوله ﴿وَ إِلٰهُكُمْ﴾ [البقرة:163] و مثل ذلك و أضاف فعل التوجيه إلى نفسه لعلمه أن اللّٰه قد أضاف العمل إلى العبد فقال يقول العبد الحمد لله و القول عمل من الأعمال فالعالم لا يزال أبدا يجري مع الحق على مقاصده كما قال ﴿خَلَقَ الْإِنْسٰانَ عَلَّمَهُ الْبَيٰانَ﴾ فعرفه بالمواطن و كيف يكون فيها و لو تركه مع نفسه لعاد إلى العدم الذي خرج منه فأعطاه الوجود و لوازمه و ظهر فيه سبحانه بنفسه بما أظهر من الأفعال به و جعل للعبد أولا معلوما وجوديا و آخرا معلوما في الوجود معقولا في التقدير و ظاهرا ما ظهر منه له و باطنا بما خفي عنه منه فلما حده بهذه الحدود و عراه عنها و قال له ما أنت هو بل ﴿هُوَ الْأَوَّلُ وَ الْآخِرُ وَ الظّٰاهِرُ وَ الْبٰاطِنُ﴾ [الحديد:3] فأبقى العبد في حال وجوده على إمكانه ما برح منه و لا يصح أن يبرح و أضاف الأفعال إليه لحصول الطمأنينة بأن الدعوى لا تصح فيها فإنه قال



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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