الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

كما لا نشك في حقيقة كلمة لا إله إلا اللّٰه من حيث ما هي لا إله إلا اللّٰه و قد ظهرت بالصورة في ستة و ثلاثين موضعا من القرآن و يعلم صاحب الذوق أن حكمها يختلف في الطعم باختلاف الموضع الذي ظهرت فيه فإن كنت تفهم كتشابه ركعات الصلاة في الصورة و لكل ركعة طعم و مذاق ما هو للأخرى كانت ما كانت و لا شك إذا فصل بين المثلين بالنقيض تميزا و من الآداب مع الملوك إذا حيوا حيوا بالانحناء و هو الركوع أو بوضع الوجه على الأرض و هو السجود تعظيما لهم و إذا توجهوا أو أثنى عليهم قام المثنى أو المكلم لهم بين أيديهم لا يكلمهم جالسا و لا في غير حال من أحوال القيام هذا هو الأدب المعروف ممن هو دون الملك مع الملك فكيف بمن هو عبد له لا يقبل الحرية و أما القرآن فلما كان المعقول في اللسان المعروف من إطلاق هذا اللفظ الجامع و الصلاة حالة يجتمع العبد فيها على سيده كما هي حالة أيضا جامعة بين اللّٰه و بين عبده حيث قسمها اللّٰه بينه و بين عبده في الصلاة وقعت المناسبة بين القرآن و بين الصلاة فلم ينبغ أن يقرأ فيها بغير القرآن و لما كان القيام يشبه الألف من الحروف الرقمية و هو أصل الحروف اللفظية و عنه ظهرت جميع الحروف بانقطاعه في مخارجها من الصدر إلى الشفتين فهو الجامع لأعيان الحروف و أعيان الحروف مراتبه و منازله في خروجه و سفره من القلب الذي هو عالم الغيب إلى الشهادة كان القيام جامعا لأنواع الهيئات و أصولها من ركوع و سجود و جلوس و إن كان الجلوس له من وجه شبه بالقيام لأنه نصف قيام فكانت قراءة القرآن من كونها جمعا في القيام أولى فإن القيام هو الحركة المستقيمة و الاستقامة هي المطلوبة من اللّٰه أن يوفق لها العبد فالعبد يقول ﴿اِهْدِنَا الصِّرٰاطَ الْمُسْتَقِيمَ﴾ [الفاتحة:6] لكون اللّٰه تعالى قال له



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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