الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 1661 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

إذا وفى الناظر النظر حقه أصاب العجز عن الإدراك فاعتقده و ما ثم إلا العجز فالحق عند اعتقاد كل معتقد بعد اجتهاده يقول تعالى ﴿وَ مَنْ يَدْعُ مَعَ اللّٰهِ إِلٰهاً آخَرَ لاٰ بُرْهٰانَ لَهُ بِهِ﴾ [المؤمنون:117] فافهم كما هو عند ظن عبده به إلا أن المراتب تتفاضل و اللّٰه أوسع و أجل و أعظم أن ينحصر في صفة تضبطه فيكون عند واحد من عباده و لا يكون عند الآخر يأبى الاتساع الإلهي ذلك فإن اللّٰه يقول ﴿وَ هُوَ مَعَكُمْ أَيْنَ مٰا كُنْتُمْ﴾ [الحديد:4] و ﴿فَأَيْنَمٰا تُوَلُّوا فَثَمَّ وَجْهُ اللّٰهِ﴾ [البقرة:115] و وجه كل شيء حقيقته و ذاته فإنه سبحانه لو كان عند واحد أو مع واحد و لا يكون عند آخر و لا معه كان الذي ليس هو عنده و لا معه يعبد و همه لا ربه و اللّٰه يقول ﴿وَ قَضىٰ رَبُّكَ أَلاّٰ تَعْبُدُوا إِلاّٰ إِيّٰاهُ﴾ [الإسراء:23] أي حكم و من أجله عبدت الآلهة فلم يكن المقصود بعبادة كل عابد إلا اللّٰه فما عبد شيء لعينه إلا اللّٰه و إنما أخطأ المشرك حيث نصب لنفسه عبادة بطريق خاص لم يشرع له من جانب الحق فشقي لذلك فإنهم قالوا في الشركاء ﴿مٰا نَعْبُدُهُمْ إِلاّٰ لِيُقَرِّبُونٰا إِلَى اللّٰهِ﴾ [الزمر:3] فاعترفوا به و ما يتصور في العالم من أدنى من له مسكة من عقل التعطيل على الإطلاق و إنما معتقد التعطيل إنما هو يعطل صفة ما اعتقدها المثبت فمن استقبل عين البيت إن كان يبصره أو الجهة إن غاب عنه بوجهه و استقبل ربه في قبلته كما شرع له في قلبه و حسه في خياله إن ضعف عن تعليق العلم به من حيث ما يقتضيه جلاله فإن المصلي و إن واجه الحق في قبلته كما ورد في النص فإنه كما قال ﴿مِنْ وَرٰائِهِمْ مُحِيطٌ﴾ [البروج:20] فهو السابق و الهادي فهو سبحانه الذي نواصي الكل بيده الهادي إلى صراط مستقيم و الذي يسوق ﴿اَلْمُجْرِمِينَ إِلىٰ جَهَنَّمَ وِرْداً﴾ [مريم:86]



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!