الفتوحات المكية

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[اصفرار الشمس من طريق الأسرار]

و أما اعتبار الاصفرار في أنه الحد الآخر وقت العصر فاعلم أولا أن الاصفرار تغيير يطرأ في عين الناظر فيحكم به أنه في نور الشمس من أبخرة الأرض الحائلة بين البصر و بين إدراك خالص نور الشمس فاعتباره ما يطرأ في نفس العبد في حكم لاسم الإلهي الحق من الخواطر النفسية العرضية في نفس ذلك الحكم فينسبه إلى الحق بوجه غير مخلص و ينسبه إلى نفسه بوجه غير مخلص و يقع مثل هذا في الطريق من الأديب و من غير الأديب فأما وقوعه من الأديب فهو الذي يعرف أن النور في نفسه لم يصفر و لا تغير و هو أن يعلم أن الحكم للاسم الإلهي مخلص لا حكم لنفس معه و إنما هو ذلك الحكم ربما تعلق عنده اسم عيب عرفا أو شرعا فينزه جناب الحق تعالى عن ذلك الحكم بأن ينسبه إليه و لكن بمشيئة اللّٰه و يقول ﴿وَ إِذٰا مَرِضْتُ فَهُوَ يَشْفِينِ﴾ [الشعراء:80] هذا هو العيب عرفا فأضاف المرض إلى نفسه إذ كان عيبا عنده و أضاف الشفاء إلى ربه إذ كان حسنا و مع هذا القصد فإن الظاهر في اللفظ إزالة حكم الاسم الإلهي الذي أمرضه فلما علم الخليل عليه السلام هذا القدر نادى ذلك الاسم الذي أمرضه بقوله رب اغفر لي خطيئتي يوم الدين يقول إنه أخطأ و إن كان قصد الأدب حيث نسب المرض لنفسه و ما نسبه إلى حكم الاسم إلهي الذي أمرضه و ما قصد إلا الأدب معه حتى لا يضيف ما هو عيب عندهم عرفا لي حكم لاسم الإلهي فيفهم من هذا الاعتراف أن الحكم كان للاسم الإلهي و هو كان مقصود الاسم فجمع هذا العارف بين أدبين في هذه المسألة بين أدب نسبة المرض إلى نفسه و بين الأدب في التعريف إن ذلك المرض حكم ذلك الاسم الإلهي من غير تصريح لكن بالتضمين و الإجمال في قوله رب اغفر ﴿(أَنْ يَغْفِرَ)لِي خَطِيئَتِي يَوْمَ الدِّينِ﴾



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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