الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

أ لا ترى العرب تقابل الزائد بالزائد في كلامها تريد بذلك التوكيد و تجيب به القائل إذا أكد قوله يقول القائل إن زيدا قائم أو يقول ما زيد قائما فيقول السامع في جواب إن زيدا قائم ما زيد قائما و في جواب ما إن زيدا قائم فيثبت ما نفاه القائل أو ينفي ما أثبته القائل فإن أكد القائل إيجابه فقال إن زيدا لقائم فأدخل اللام لتأكيد ثبوت القيام أدخل المجيب الباء في مقابلة اللام لتأكيد نفي ما أثبته القائل فيقول ما زيد بقائم و يسمى مثل هذا زائدا لأن الكلام يستقل دونه و لكن إذا قصد المتكلم خلاف التبعيض و أتى بذلك الحرف للتأكيد فإن قصد التبعيض لم يكن زائدا ذلك الحرف جملة واحدة و الصورة واحدة في الظاهر و لكن تختلف في المعنى و المراعاة إنما هي لقصد المتكلم الواضع لتلك الصورة

[منشأ الخلاف بين النظار في الخلق الأفعال]

فإذا جهلنا المعنى الذي لأجله خلق سبحانه لتمكن من فعل بعض الأعمال نجد ذلك من نفوسنا و لا ننكره و هي الحركة الاختيارية كما جعل سبحانه فينا المانع من بعض الأفعال الظاهرة فينا و نجد ذلك من نفوسنا كحركة المرتعش الذي لا اختيار للمرتعش فيها لم ندر لما يرجع ذلك التمكن الذي نجده من نفوسنا هل يرجع إلى أن يكون للقدرة الحادثة فينا أثر في تلك العين الموجودة عن تمكننا أو عن الإرادة المخلوقة فينا فيكون التمكن أثر الإرادة لا أثر القدرة الحادثة من هنا منشا الخلاف بين أصحاب النظر في هذه المسألة و عليه ينبغي كون الإنسان مكلفا لعين التمكن الذي يجده من نفسه و لا يحقق بعقله لما ذا يرجع ذلك التمكن هل لكونه قادرا أو لكونه مختارا و إن كان مجبورا في اختياره و لكن بذلك القدر من التمكن الذي يجده من نفسه يصح أن يكون مكلفا و لهذا قال تعالى



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