الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 10839 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

لعمرك ما شيء علمت مكانه *** أحق يسجن من لسان مدلل

على فيك مما ليس يعنيك قوله *** بقفل شديد حيث ما كنت أقفل

و قالت عائشة أم المؤمنين رضي اللّٰه عنها خلال المكارم عشر تكون في الرجل و لا تكون في ابنه و تكون في العبد و لا يكون في سيده صدق الحديث و صدق الناس و إعطاء السائل و المكافاة بالصنائع و التذمم للجار و مراعاة حق الصاحب و صلة الرحم و قرى الضيف و أداء الأمانة و رأسهن الحياء و قال بعضهم كتمانك سرك يعقبك السلامة و إفشاؤك سرك يعقبك الندامة و الصبر على كتمان السر أيسر من الندم على إفشائه في الحكمة ما أقبح بالإنسان أن يخاف على ما في يده اللصوص فيخفيه و يمكن عدوه من نفسه بإظهاره ما في قلبه من سر نفسه أو سر أخيه جاور معي بمكة أظن سنة تسع و تسعين و خمسمائة رجل من أهل تونس يقال له عبد السلام بن السعرية و كانت عنده جارية اشتراها بمصر في الشدة التي وقعت بمصر سنة سبع و تسعين و خمسمائة فقال لها يا جارية أوصيك بأمرين حفظ السر و الأمانة فقالت الجارية ما تحتاج فإني أعلم أن الشخص إذا كان أمينا شارك الناس في أموالهم و إذا كان حافظا للسر شاركهم في عقولهم فاستحسن هذا الجواب منها فسأل عنها فوجدها حرة قد بيعت في غلاء مصر فأعتقها و سرحها فرجعت إلى أمها و أخواتها و قال معاوية رضي اللّٰه عنه ما أفشيت سرى إلى أحد إلا أعقبني طول الندم و شدة الأسف و لا أودعته جوانح صدري إلا أكسبني مجدا و ذكرا و سنا و رفعة فقيل له و لا ابن العاص فقال و لا ابن العاص لأن عمرو بن العاص كان صاحب رأى معاوية و مشيره و وزيره و كان يقول ما كنت كاتمه من عدوك فلا تظهر عليه صديقك يريد و اللّٰه أعلم معاوية بهذا الكلام ما كان ينشدنا في أكثر مجالسه أبو بكر محمد بن خلف بن صاف اللخمي أستاذي في القراآت بمسجده بقوس الحنية من إشبيلية رحمه اللّٰه يوصينا بذلك

احذر عدوك مرة *** و احذر صديقك ألف مرة



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!