Les révélations mecquoises: futuhat makkiyah

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﴿إِنِّي أَنَا رَبُّكَ﴾ [ طه:12] فإنه لا بد لها من أثر فلما لم تجد إنية العبد التي هي نون الوقاية أثرت في إنية الحق فخفضتها و مقامها الرحمة التي هي الفتح فما أزاله عن مقامه إلا هو و لا أثر فيه سواه فأقرب ما يكون العبد من الحق إذا كان وقاية بين إنية الحق و بين ضميره فيكون محصورا قد أحاط به الحق من كل جانب و كان به رحيما لبقاء صفة الرحمة فبابها مفتوح و بها حفظ على المحدث وجوده فبقي عين نون الوقاية الحادثة في مقام العبودية الذي هو الخفض المتولد عن ياء ضمير الحق فظهر في العبد أثر الحق و هو عين مقام العبد الذلة و الافتقار فما للعبد مقام في الوصلة بالحق تعالى أعظم من هذا حيث له وجود العين بظهور مقامه فيه و هو في حال اندراج في الحق محاط به من كل جانب فعرف نفسه بربه حين أثر فيه الخفض فعرف ربه حين أبقاه على ما هو عليه من الرحمة فإنه الرحمن الرحيم فما زال عنه الفتح بوجود عين العبد فلا يشهده أبدا إلا رحمانا و لا يعلمه أبدا إلا مؤثرا فيه فلا يزال في عبوديته قائما و هذا غاية القرب و لما حار أبو يزيد في القرب من اللّٰه قبل أن يشهد هذا المقام قال لربه يا رب بما ذا أتقرب إليك فقال بما ليس لي فقال يا رب و ما ليس لك و كل شيء لك فقال الذلة و الافتقار فعلم عند ذلك ما لإنية الحق و ما لإنية العبد فدخل في هذا المقام فكان له القرب الأتم فجمع بين الشهود و الوجود إذ كان كل شيء هالك فإن الشهود عند القوم فناء حكم لا فناء عين و في هذا المقام شهود بلا فناء عين و هو محل الجمع بيننا و بين الطائفة و بلا فناء حكم فإنه أبقى للحق ما يستحقه من الفتح الرحموتي إذ لولاه أعني لو لا هذا القرب المعين لعاد الأثر على إنية الحق و لهذا أظهر في ﴿إِنِّي أَنَا رَبُّكَ﴾ [ طه:12] ليعلم أن الأثر إذا صدر من الحق لا بد له من ظهور حكم و ما وجد إلا الحق فعاد عليه فجاء العبد فدخل بين الإنية الإلهية و المؤثر فعمل فيه



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