الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

فسماهم مؤمنين و لكن تحقق في إيمانهم بالباطل إنهم ما آمنوا به من كونه باطلا و إنما آمنوا به من كونهم اعتقدوا فيه ما اعتقد أهل الحق في الحق فمن هنا نسب الايمان إليهم و بما هو في نفس الأمر على غير ما اعتقدوه سماه الحق لنا باطلا لا من حيث ما توهموه الحميد بما هو حامد بلسان كل حامد و بنفسه و بما هو محمود بكل ما هو مثنى عليه و على نفسه فإن عواقب الثناء عليه تعود المحصي كل شيء عددا من حروف و أعيان وجودية إذ كان التناهي لا يدخل إلا في الموجودات فيأخذه الإحصاء فهذه الشيئية شيئية الوجود و في قوله ﴿وَ أَحْصىٰ كُلَّ شَيْءٍ عَدَداً﴾ [الجن:28] المبدئ هو الذي ابتدأ الخلق بالإيجاد في الرتبة الثانية و كل ما ظهر من العالم و يظهر فهو فيها و ما ثم رتبة ثالثة فهي الآخر و الأولى للحق فهو الأول فالخلق من حيث وجوده لا يكون في الأول أبدا و إنما له الآخر و الحق معه في الآخر فإنه مع العالم ﴿أَيْنَ مٰا كٰانُوا﴾ [المجادلة:7] و قد تسمى بالآخر

[المعيد إذا خلق شيئا و فرغ خلقه عاد إلى خلق آخر]

فاعلم المعيد عين الفعل من حيث ما هو خالق و فاعل و جاعل و عامل فهو إذا خلق شيئا و فرغ خلقه عاد إلى خلق آخر لأنه ليس في العالم شيء يتكرر و إنما هي أمثال تحدث و هي الخلق الجديد و أعيان توجد المحيي بالوجود كل عين ثابتة لها حكم قبول الإيجاد فأوجدها الحق في وجوده المميت في الزمان الثاني فما زاد من زمان وجودها فمفارقتها و انتقالها لحال الوجود الذي كان لها موت و قد يرجع إلى حكمها من الثبوت الذي كان لها فمن المحال وجودها بعد ذلك حتى تفرغ و هي لا تفرغ لعدم التناهي فيها فافهم و في تقييدي هذا الباب في هذه المسألة سمعت منشدا ينشد من زاوية البيت لا أرى له شخصا لكني أسمع الصوت و لا أدري لمن يخاطب بذلك الكلام و هو



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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