الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

﴿لَهُ مُعَقِّبٰاتٌ مِنْ بَيْنِ يَدَيْهِ وَ مِنْ خَلْفِهِ يَحْفَظُونَهُ مِنْ أَمْرِ اللّٰهِ﴾ [الرعد:11] أي من حيث إن اللّٰه أمرهم بحفظه فهم المعصومون المحفوظون و قد يحفظونه من أمر النازل به فيدفعونه كما فعل بالزاني في حين زناه أخرج عنه الايمان حتى صار عليه كالظلة يحفظه من أمر اللّٰه النازل به حيث تعرض بالمخالفة لنزول البلاء عليه فيحفظه الايمان من هذا الأمر النازل بأن يتلقاه فيرده عنه لعله يستغفر أو يتوب فإذا كان غير المعصوم يحفظ مثل هذا الحفظ فما ظنك بالمعتنى به فإنه محفوظ في الأصل و أدق ما يكون من الخلاف النزاع الإلهي بإنابة العبد فإذا زال العبد عن إنابته لم يجد القهار من يقف له فيقهره و السهم لا يمشي إلا إلى مرماه و اعلم أن الدعاء لا يقتضي المنازعة كما ذهب إليه سهل و الفضيل بن عياض حيث أرادا ما أراد اللّٰه كما جاء عنهما فإن الدعاء ذلة و افتقار و النزاع رياسة و سلطنة و لو لا النزاع القائم بنفوس الرعية الذين لو مكنوا من إرساله لوقع منهم ما أضيف إلى الرعية إنهم مقهورون تحت سلطان مليكهم و من لم يخطر له شيء من ذلك و لم ينازع فما هو مقهور و لا الملك له بقاهر بل هو به رءوف رحيم فمن قهر تخلقا من عباد اللّٰه فإنما قهر بالله من نازع أمر اللّٰه لا بنفسه و ما ثم إلا نزاع الشيطان بلمته فيما يلقيه إلى هذا العبد في قلبه منازعة لأمر اللّٰه و نهيه هذا قصده بالإلقاء و إن لم يخطر للعبد ذلك فإنه لا يخطر له مثل هذا الكون الايمان يرده و لكن يستدرجه بالمخالفة شيئا بعد شيء إلى أن يكفر فإن المعاصي يريد الكفر و لا تأتي إذا كثرت و ترادفت إلا بالكفر فلهذا يسارع بها و ينوعها الشيطان فلا يزال المؤمن يقهره بلمة الملك مساعدة للملك على نفسه لينجو فإن المؤمن من يقول لا حول و لا قوة إلا بالله و من النزاع الخفي الصبر على البلاء إذا لم يرفع إزالته إلى اللّٰه كما فعل أيوب عليه السّلام و قد أثنى اللّٰه عليه بالصبر فقال مع ثبوت شكواه



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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