الفتوحات المكية

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فأعيان العالم محفوظون في خزائنه عنده و خزائنه علمه و مختزنه نحن فنحن أثبتنا له حكم الاختزان لأنه ما علمنا إلا منا فكان طريقا وسطا بين شيئية ثبوتنا و شيئية وجودنا فإذا أراد أن ينقلنا إلى شيئية وجودنا أمرنا عليه فاكتسينا الوجود منه فظهرنا بصورته في شيئية وجودنا و صورته ما نحن عليه في شيئية ثبوت فإن علمه عين ذاته و إنما سمي علما لتعلقه بالمعلوم و التعلق محبة فلو كان العدم وسطا بين شيئية الثبوت و شيئية الوجود لكان إذا أراد إيجادنا مر بنا على العدم فاكتسبنا منه نفي شيئية الثبوت فلم نوجد لا في الثبوت و لا في الوجود فلذلك لم يكن لنا طريق إلا على وجود الحق لنستفيد منه الوجود فتفهم هذا الترتيب فإنه نافع مفيد فإنه يعطيك العلم بحكم المواطن و أنها تحكم بنفسها في كل من ظهر فيها فمن مر على موطن انصبغ به و الدليل الواضح في ذلك رؤيتك اللّٰه تعالى في النوم و هو موطن الخيال فلا ترى الحق فيه إلا في صورة جسدية كانت تلك الصورة ما كانت فهذا حكم الموطن قد حكم عليك في الحق إنك لا تراه إلا هكذا كما إنك إذا دخلت موطن النظر العقلي و خرجت عن خزانة الخيال و موطنه لم تدرك الحق تعالى إلا منزها عن الصورة التي أدركته فيها في موطن الخيال و إذا كان الحكم للموطن عرفت إذا رأيت الحق ما رأيت و أثبت ذلك للموطن أعني ذلك الحكم حتى يبقى الحق لك مجهولا أبدا فلا يحصل لك منه علم في نفسك إلا بتوحيد المرتبة له و أما إن تعلم ذاته فمحال ذلك لأنك ما تخلو عن موطن تكون فيه يحكم عليك ذلك الموطن بأن لا ترى الحق إلا به فإنك تفارق ما أعطاك من العلم به في موطن آخر فتحكم على الحق في كل موطن بحكم ما هو عين الحكم الذي حكمت به عليه في الموطن الذي قبله فتعرف عند ذلك إنك ما تعرفه من حيث يعرف نفسه و هذا غايتنا من العلم به تعالى فما عندنا منه في موطن ينفد في موطن آخر فما عندنا ينفد و ما عند اللّٰه باق من علمه بنفسه لا يتغير و لا يتبدل و لا يتنوع لنفسه في نفسه بتنوع المواطن فإن المواطن تنوعها لذاتها و لو لم تتنوع لكانت موطنا واحدا كما أن الأسماء لو لم تختلف معانيها لكانت اسما واحدا كما هي واحد من حيث مسماها في مثل قوله ﴿قُلِ ادْعُوا اللّٰهَ أَوِ ادْعُوا الرَّحْمٰنَ﴾ [الإسراء:110] هذا من حيث المسمى فإنه قال



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