الفتوحات المكية

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[إن الجوارح ارتبطت بالنفس الناطقة ارتباط الملك بمالكه]

قال اللّٰه تعالى ﴿يَوْمَ تَشْهَدُ عَلَيْهِمْ أَلْسِنَتُهُمْ وَ أَيْدِيهِمْ وَ أَرْجُلُهُمْ بِمٰا كٰانُوا يَعْمَلُونَ﴾ [النور:24] يعني بها و لا تشهد إلا بالأجنبية إذ لا بد من شهود عليه و إن لم يكن على ما قلناه و كان عين الشاهد عين المشهود عليه فهو إقرار لا شهادة و ما ذكر اللّٰه تعالى أنه إقرار فدل على إن الجوارح ارتبطت بالنفس الناطقة ارتباط الملك بمالكه كما هو الأصل عليه و الأصل هو الحق و لم يزل في أزله مدبرا فلا بد أن يكون تدبيره في مدبر معين له أزلا و ليس إلا أعيان الممكنات فهي مشهودة له في حال عدمها فإنها ثابتة فيدبر فيها ما يكون من تقدم بعضها على بعض و تأخرها في تكوين أعيانها و صور ما توجد فيها و هنالك هو سر القدر الذي أخفى اللّٰه تعالى علمه عن خلقه حتى يظهر الحكم به في الصور الموجودة في رأى العين فكذلك لما أراد اللّٰه إنشاء الأرواح المدبرة فهي لا تكون إلا مدبرة فإن لم يكن لها أعيان و صور يظهر تدبيرها فيها بطلت حقيقتها إذ هي لذاتها مدبرة هكذا هو الأمر عند أهل الكشف و هنا سر عجيب غريب أومئ إليه إن شاء اللّٰه في هذا التفصيل فنقول إن اللّٰه أنشأ هذه الصور الجسدية من نور و نار و تراب و ماء مهين على اختلاف أصول هذه النشأة المتعددة فعند ما كملت التسوية في الصورة التي هي محل تدبير الأرواح المدبرة أنشأ اللّٰه منها أي من قبولها ما ينفخ فيها من أوجدها و هو الفيض الدائم أرواحا مدبرة لها قائمة بها على صورة قبولها فتفاضلت الأرواح لتفاضل النشآت فلم يكونوا على مرتبة واحدة إلا في كونهم مدبرين فالأرواح المدبرة إنما ظهرت بصور مزاج القوابل فلا تتعدى الأرواح في التدبير ما تقتضيه إلهيا كل المدبرة فانظر إلى أعيان الممكنات قبل ظهورها في عينها لا يمكن أن يظهر الحق فيها إلا بصورة ما تقبله فما هي على صورة الحق في الحقيقة و إنما المدبر على صورة المدبر إذ لا يظهر فيه منه إلا على قدر قبوله لا غير فليس الحق إلا ما هو عليه الخلق لا يرى من الحق و لا يعلم غير هذا و هو في نفسه على ما علم و له في نفسه ما لا يصح أن يعلم أصلا و ذلك الأمر الذي لا يعلم أصلا هو الذي له بنفسه المشار إليه بقوله ﴿فَإِنَّ اللّٰهَ غَنِيٌّ عَنِ الْعٰالَمِينَ﴾ [آل عمران:97]



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