الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و ذلك الذي يحوك في صدرك هو عين تجلى الأمر الذي لك و قسمك من الوجود الحق قال بعضهم في باب الورع ما رأيت شيئا أسهل علي من الورع كل ما حاك له شيء في نفسي تركته يؤيده «قول النبي ﷺ دع ما يريبك إلى ما لا يريبك» و «قال استفت قلبك و إن أفتاك المفتون»

[علم اللّٰه بالأشياء معدومها و موجودها و واجبها و ممكنها و محالها]

و اعلم أن اللّٰه تعالى ما كتب إلا ما علم و لا علم إلا ما شهد من صور المعلومات على ما هي عليه في أنفسها ما يتغير منها و ما لا يتغير فيشهدها كلها في حال عدمها على تنوعات تغييراتها إلى ما لا يتناهى فلا يوجدها إلا كما هي عليه في نفسها فمن هنا تعلم علم اللّٰه بالأشياء معدومها و موجودها و واجبها و ممكنها و محالها فما ثم على ما قررناه كتاب يسبق إلا بإضافة الكتاب إلى ما يظهر به ذلك الشيء في الوجود على ما شهده الحق في حال عدمه فهو سبق الكتاب على الحقيقة و الكتاب سبق وجود ذلك الشيء و يعلم ذوق ذلك من علم الكوائن قبل تكوينها فهي له مشهودة في حال عدمها و لا وجود لها فمن كان له ذلك علم معنى سبق الكتاب فلا يخف سبق الكتاب عليه و إنما يخاف نفسه فإنه ما سبق الكتاب عليه و لا العلم إلا بحسب ما كان هو عليه من الصورة التي ظهر في وجوده عليها فلم نفسك لا تعترض على الكتاب و من هنا إن عقلت وصف الحق نفسه بأن له الحجة البالغة لو نوزع فإنه من المحال أن يتعلق العلم إلا بما هو المعلوم عليه في نفسه فلو أحتج أحد على اللّٰه بأن يقول له علمك سبق في بأن أكون على كذا فلم تؤاخذني يقول له الحق هل علمتك إلا بما أنت عليه فلو كنت على غير ذلك لعلمتك على ما تكون عليه و لذلك قال حتى نعلم فارجع إلى نفسك و أنصف في كلامك فإذا رجع العبد على نفسه و نظر في الأمر كما ذكرناه علم أنه محجوج و أن الحجة لله تعالى عليه أ ما سمعته تعالى يقول ﴿وَ مٰا ظَلَمَهُمُ اللّٰهُ﴾ [آل عمران:117] ﴿وَ مٰا ظَلَمْنٰاهُمْ﴾ [هود:101]



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