الفتوحات المكية

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فلعل هذا من ذلك البعض و إثمه أن ينطق به و إن وافق العلم في نفس الأمر فإن اللّٰه يؤاخذه بكونه ظن و ما علم فنطق فيه بأمر محتمل و لم يكن له ذلك و سوء الظن بنفس الإنسان أولى من سوء ظنه بالغير لأنه من نفسه على بصيرة و ليس هو من غيره على بصيرة فلا يقال فيه في حق نفسه إنه سيئ الظن بنفسه لأنه عالم بنفسه و إنما قلنا فيه إنه يسيء الظن بنفسه اتباعا لسوء ظنه بغيره فهو من تناسب الكلام و له وجه في الحقائق الشرعية فإنه بالنظر إلى نفسه ليس هو في فعله ما ينكره على نفسه على الحقيقة عالما بأنه في فعله ذلك على منكر يعلمه بل هو على ظن فسوء الظن بنفسه أولى و ذلك «أن لله عبادا قد قال لهم اللّٰه افعلوا ما شئتم فقد غفرت لكم» فما فعلوا إلا ما أباح الشرع لهم فعله و إن لم يعلموا أنهم ممن خوطبوا بذلك و هو في الحديث الصحيح فما فعل إلا ما هو مباح عند اللّٰه و هو لا علم له بذلك فهو عند اللّٰه بهذه المثابة فلهذا قلنا سوء الظن بنفسه إذ لم يكن فيها على بصيرة على الحقيقة مع هذا الاحتمال من جانب الحق و قد جعل اللّٰه لمن هذه صفته علامة يعرف بها نفسه أنه من أولئك القوم و لا يشك بالعلم الشرعي الصحيح أن حرمة نفس الإنسان عليه عند اللّٰه أعظم من حرمة غيره بما لا يتقارب و إنه من قتل نفسه أعظم في الجرم ممن قتل غيره و أن صدقته على نفسه أعظم في الأجر من صدقته على غيره فالعالم الصالح من استبرأ لدينه في كل أحواله في حق نفسه و في حق غيره و إلى الآن ما رأيت أحدا من أهل الانتماء إلى الدين و إلى العلم على هذا القدم فالحمد لله الذي وفقنا لاستعماله و حال بيننا و بين إهماله و لو لا ما في ذكر هذا من المنفعة لعباد اللّٰه و النصيحة لهم ما بسطنا القول فيه هذا البسط و إن كان الفصل يقتضيه فإنه فصل المواعظة و اللّٰه يقول لنبيه ﷺ فيما أنزله عليه ﴿اُدْعُ إِلىٰ سَبِيلِ رَبِّكَ بِالْحِكْمَةِ وَ الْمَوْعِظَةِ الْحَسَنَةِ﴾ [النحل:125]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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