الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 8246 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

ثم ما زال التوالد و التناسل في كل نوع نوع من المولدات كلها في الدنيا ما دامت الدنيا و في الآخرة إلى ما لا يتناهى و إن تنوعت أحوال التوالد كما ظهر ذلك في الدنيا في حواء و عيسى و بنى آدم و أما في آدم فباليدين و بالأركان و في النبات متنوع أيضا في غراسه و بزوره و كذلك في المعادن فانظر ما أحكم حكمة اللّٰه في خلقه و لما أطلعنا على الوجه الخاص الذي لكل موجود لم يتمكن لنا أن نضيف التوالد لنا جملة واحدة بل أضفنا كل ما ظهر في الكون إليه و هو قوله تعالى ﴿وَ مٰا أَمْرُنٰا﴾ [القمر:50] و نحن أمره ﴿إِلاّٰ وٰاحِدَةٌ﴾ [القمر:50] فما ثم موجد إلا اللّٰه تعالى على كل وجه علم ذلك من علمه و جهله من جهله كما يقول الطبيعيون في الموجودات الطبيعية بأحدية الطبيعة فكل ما ظهر من الموجودات الطبيعية قالوا هذا عن الطبيعة فوحدوا الأمر كما وحدنا الإله في خلقه فلم يكن إلا اللّٰه و هو الذي سموه أولئك طبيعة و لا علم لهم كما سمته الدهرية بالدهر و لا علم لهم إلا أن اللّٰه تسمى لنا بالدهر و ما تسمى بالطبيعة لأن الطبيعة ليست بغير لمن وجد عنها عينا فهي عين كل موجود طبيعي و لما كان الحق له هذا الحكم و ظهر به عند الخواص من عباده و علمنا إن الاسم دلالة على المسمى فرأينا الاسم و إن دل فهو أجنبي فعلمنا أن حكم الطبيعة يخالف حكم الدهر فإن الدهر ما هو عين الكوائن و رأينا الطبيعة عين الكوائن الطبيعية و رأينا أن الحق له تنزيه ينفصل به عنا انفصال الدهر عما يكون فيه فتسمى تعالى بالدهر تنزيها و ما تسمى بالطبيعة لكون الأمر ما هو غيره بل هو عينه و المسمى لا يسمى نفسه لنفسه فلا يسمى بالطبيعة و إنما يسمى نفسه لغيره حتى إذا ذكره عرف أنه يذكره و إذا ذكر عرفه فهذا أصل وضع الأسماء

فما ثم إلا اللّٰه لا شيء غيره *** و ما ثم إلا اثنان و اللّٰه ثالث



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!