الفتوحات المكية

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أي حقا في الحس و قد كانت حقا في الخيال في موطن الرؤيا فما ثم إلا حق و ما كان اللّٰه ليسرمد عذابا على من أتى حقا فإن اللّٰه لما قسم الحق إلى ما هو مأمور به و منهي عنه فأراد الحق أن يفرق بين من أتى المأمور به و بين من أتى المنهي عنه ليتميز الطائع من العاصي فتتميز المراتب فإذا عرف كل أحد قدره و ما أتى عمت الرحمة الجميع كل صنف في منزله من حيث إنه ما جاء إلا بحق و إن كان منهيا عنه فإن المفتري صاحب حق خيالي لا حق حسي فإنه لا يفتري المفتري حتى يحضر في خياله الافتراء و المفترى عليه و يقيمه في صورة ما افترى به عليه فإذا تخلية مثل صورة النوم سواء أخبر عنه بحق خيالي لكنه سكت عن التعريف بذلك للسامع فأخذه السامع على أنه حق محسوس فأراد اللّٰه الفرقان بين طبقات العالم و مراتبه فلذلك أعقب صاحب هذا النعت بالعقوبة على ذلك أو بالمغفرة بأيهما شاء لأن من هؤلاء العصاة المعاقب و المغفور له كما أنه من الطائعين العالم بالأمر على ما هو عليه في نفسه و هم العاملون على بصيرة أهل الكشف و الوجود و منهم المحجوب عن ذلك مع كونه مطيعا فلم يجعل اللّٰه أهل الطاعة على رتبة واحدة فما في الوجود المعنوي و الحسي و الخيالي إلا حق فإنه موجود عن حق و لا يوجد الحق إلا الحق و لهذا «قال ﷺ في دعائه يخاطب ربه تعالى و الخير كله في يديك و الشر ليس إليك» فإنه ضد الخير فما صدر عن الخير إلا الخير و الشر إنما هو عدم الخير فالخير وجود كله و الشر عدم كله لأنه ظهور ما لا عين له في الحقيقة فهو حكم و الأحكام نسب و إنما قلنا ظهور فيه لأن ذلك لغة عربية قال إمرؤ القيس لو يشرون مقتلي أي يظهرون و لذلك قال تعالى عن نفسه ﴿فَإِنَّهُ يَعْلَمُ السِّرَّ﴾ [ طه:7]



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