الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

«رسول اللّٰه ﷺ يقول عن نفسه إنه لو ابتلي بمثل ما ابتليت به و دعي لأجاب الداعي و لم يبق في السجن حتى يأتيه الجواب من الملك بما تقول النسوة» فقال لي بين الذوق و الفرض ما بين السماء و الأرض كثير بين أن تفرض الأمر أو تذوقه من نفسك لو نسب إليه ﷺ ما نسب إلي لطلب صحة البراءة في غيبته فإنها أدل على براءته من حضوره و لما كان رحمة كان من عالم السعة و السجن ضيق فإذا جاء لمن حاله هذا سارع إلى الانفراج و هذا فرض فالكلام مع التقدير المفروض ما هو مثل الكلام مع الذائق أ لا تراه ﷺ ما ذكر ذلك إلا في معرض نسبة الكمال إلي فيما تحملته من الفرية علي فقال ذلك أدبا معي لكونى أكبر منه بالزمان كما «قال في إبراهيم نحن أحق بالشك من إبراهيم فيما شك فيه إبراهيم» و كما «قال في لوط يرحم اللّٰه أخي لوطا لقد كان يأوي» ﴿إِلىٰ رُكْنٍ شَدِيدٍ﴾ [هود:80] أ تراه أكذبه حاشى لله فإن الركن الشديد الذي أراده لوط هو القبيلة و الركن الشديد الذي ذكره رسول اللّٰه ﷺ هو اللّٰه فهذا تنبيه لك أن لا تجري نفسك فيما لا ذوق لك فيه مجرى من ذاق فلا تقل لو كنت أنا عوض فلان لما قيل له كذا و قال كذا ما كنت أقوله لا و اللّٰه بل لو نالك ما ناله لقلت ما قاله فإن الحال الأقوى حاكم على الحال الأضعف و قد اجتمع في يوسف و هو رسول اللّٰه حالان حال السجن و حال كونه مفترى عليه و الرسول يطلب أن يقرر في نفس المرسل إليه ما يقبل به دعاء ربه فيما يدعوه به إليه و الذي نسب إليه معلوم عند كل أحد إنه لا يقع من مثل من جاء بدعوته إليهم فلا بد أن يطلب البراءة من ذلك عندهم ليؤمنوا بما جاء به من عند ربه و لم يحضر بنفسه ذلك المجلس حتى لا تدخل الشبهة في نفوس الحاضرين بحضوره و فرق كبير بين من يحضر في مثل هذا الموطن و بين من لا يحضر فإذا كانت المرأة لم تخن يوسف في غيبته لما برأته و أضافت المراودة لنفسها لتعلم أن يوسف لم يخن العزيز في أهله و علمت أنه أحق بهذا الوصف منها في حقه فما برأت نفسها بل قالت ﴿إِنَّ النَّفْسَ لَأَمّٰارَةٌ بِالسُّوءِ﴾ [يوسف:53]



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