الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

باتصاله و لكن لا يكون التكوين من العالم إلا باتصاله لا بانفصاله و العالم يكون ما كلفه اللّٰه به من العبادات و لهذا أضاف أعمالها إلى العبد و أمره أن يطلب الإعانة من اللّٰه في ذلك كما أنه آلة للحق في بعض الأفعال و الآلات معينة للصانع فيما لا يصنع إلا بآلة و العالم منفصل عن الحق بحده و حقيقته فهو منفصل متصل من عين واحدة فإنه لا يتكثر في عينه و إن تكثرت أحكامه فإنها نسب و إضافات عدمية معلومة فخرج على صورة حق فما صدر عن الواحد إلا واحد و هو عين الممكن و ما صدرت الكثرة أعني أحكامه إلا من الكثرة و هي الأحكام المنسوبة إلى الحق المعبر عنها بالأسماء و الصفات فمن نظر العالم من حيث عينه قال بأحديته و من نظره من حيث أحكامه و نسبه قال بالكثرة في عين واحدة و كذلك نظره في الحق فهو الواحد الكثير كما أنه ﴿لَيْسَ كَمِثْلِهِ شَيْءٌ وَ هُوَ السَّمِيعُ الْبَصِيرُ﴾ [الشورى:11] و أين التنزيه من التشبيه و الآية واحدة و هي كلامه عن نفسه على جهة التعريف لنا بما هو عليه في ذاته ففصل بليس و أثبت بهو و أما نداؤه تعالى للعالم و نداء العالم إياه فمن حيث الانفصال فهو ينادي ﴿يٰا أَيُّهَا النّٰاسُ﴾ [البقرة:21] و نحن ننادي يا ربنا ففصل نفسه عنا كما فصلنا أيضا أنفسنا عنه فتميزنا و أين هذا المقام من مقام الاتصال إذا أحبنا و كان سمعنا و بصرنا و جميع قوانا و جعل ذلك حين أخبرنا اتصال محب بمحبوب فنسب الحب إليه و نحن المحبوبون و لا خفاء بالفرق بين أحكام المحب و منزلته و بين أحكام المحبوب و منزلته فارتفعنا به و نزل سبحانه بنا و ذلك حتى لا يكون الوجود على السواء فإنه محال التسوية فيه فلا بد من نزول و رفعة فيه و ما ثم إلا نحن و هو فإذا كان حكم واحد النزول كان حكم الآخر الرفعة و العلو و كل محب نازل و كل محبوب عال و ما منا إلا محب و محبوب ف‌



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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