الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و عند شرودنا عنه دعاني *** لا علم أن في العقبي مساقي

إليه في جسوم من نبات *** فإن طبنا فمسك في حقاق

﴿فَرِيقٌ فِي الْجَنَّةِ وَ فَرِيقٌ فِي السَّعِيرِ﴾ [الشورى:7] فتميز الواحد عمن ثناه فانفرد كل فريق بأحديته و جمعيته فمنهم من تأنس بانفراده بفرديته و أحديته و منهم من استوحش في انفراده بفرديته و أحديته فتلك عند العارفين وحشة الحجاب

فأي نعيم لا يكدره الدهر *** و لله فيما قلته الخلق و الأمر

فلو لا وجود الحق ما كان خيره *** و لو لا وجودي لم ير في الورى الشر

و لست سواه لو تسر حقيقتي *** و لكنه أخفى فشأني له ستر

فمن يتحقق صورتي فإنه *** يلوح له من نشأتي الدر و الدر

فدر لا حجار تنافس نشأتي *** و للعلم منها ما يجود به الدر

فإن كنت ذا عقل تبين حكمه *** و إن كنت ذا عين فقد رفع الستر

فإن شئت فأشر به رحيقا مختما *** و إن لم تشأ خمرا فمشربك المزر

فسبحان من أحيا الفؤاد بذكره *** و لو لم يكن ذكر لقام به الفكر

[ثبوت العلم على صورته]

و اعلم أيدك اللّٰه بروح منه أني ما رأيت ثبوت العلم على صورته لا يتغير إلا في هذا المنزل فأورثني الطمأنينة فيما علمت أنه لا يزول و أن الشبه لا تزلزله و أن الشبهة إذا جاءت لمن شاهد هذا الأمر في هذا المنزل رآها شبهة لا يمكن أن تتغير له عن صورتها بخلاف من ليس له هذا المنزل فإنه يتزلزل و يؤديه ذلك التزلزل إلى النظر فيما كان قد قطع أنه يعلمه و لا يعرف هل العلم الأول كان شبهة أو هل الشهود شبهة أو هل الأمران شبهة فيحار و ذلك أنه ليس هو في علمه بالأمور على بصيرة لأنه ولدها بفكره فإذا جاءت الأمور بأنفسها لا بجعلك و إنشائك أعطتك حقائقها فعلمتها على ما هي عليه و يتعلق بهذا المنزل آيات كثيرة من القرآن العزيز و لو بسطنا الكلام فيها لطال المدى فلنذكر منها بعض آيات لا كلها و لا أشرحها و إنما أنبه عليها للعقول السليمة و الأبصار النافذة فمن ذلك ﴿وَ لِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰاوٰاتِ وَ الْأَرْضِ﴾ [آل عمران:189] و منها



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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