الفتوحات المكية

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﴿أُولٰئِكَ الَّذِينَ اشْتَرَوُا الضَّلاٰلَةَ بِالْهُدىٰ﴾ [البقرة:16] فلما باعوا الهدى بالضلالة خسروا و قال ﴿هَلْ أَدُلُّكُمْ عَلىٰ تِجٰارَةٍ تُنْجِيكُمْ مِنْ عَذٰابٍ أَلِيمٍ﴾ [الصف:10] ثم ذكر ما هي التجارة فقال ﴿تُؤْمِنُونَ بِاللّٰهِ وَ رَسُولِهِ وَ تُجٰاهِدُونَ فِي سَبِيلِ اللّٰهِ﴾ [الصف:11] و إنما عدل في هذه الأمور إلى التجارة دون غيرها فإن القرآن نزل على قرشي بلغة قريش بالحجاز و كانوا تجارا دون غيرهم من الأعراب فلما كان الغالب عليهم التجارة كسى اللّٰه ذات الشرع و الايمان لفظ التجارة ليكون أقرب إلى أفهامهم و مناسبة أحوالهم و بعد أن أبنت لك عن الأمور على ما هي عليه إن كنت ذا نظر أو إيمان فإني ما أخبرتك إلا بممكن ما أخبرتك بمحال فلنقل بعد هذا البيان الشافي و الإيضاح الكافي لأهل طريق اللّٰه خاصة و خاصته من عباده من مكاشف و مؤمن إن البهائم ما اختصت بهذا الاسم المشتق من الإبهام و المبهم إلا لكون الأمر أبهم علينا فإنا قد بينا لك ما هي عليه من المعرفة بالله و بالموجودات و إنما سميت بذلك لما انبهم علينا من أمرها فإبهام أمرها إنما هو من حيث جهلنا ذلك أو حيرتنا فيه فلم نعرف صورة الأمر كما يعرفه أهل الكشف فهي عند غير أهل الكشف و الايمان بهائم لما نبهم عليهم من أمرها لما يرون من بعض الحيوان من الأعمال الصادرة عنها التي لا تصدر إلا عن فكر و روية صحيحة و نظر دقيق يصدر منهم ذلك بالفطرة لا عن فكر و لا روية فأبهم اللّٰه على بعض الناس أمرهم و لا يقدرون على إنكار ما يرونه مما يصدر عنهم من الصنائع المحكمة فذلك جعلهم يتأولون ما جاء في الكتاب و السنة من نطقهم و نسبة القول إليهم ليت شعري ما يفعلون فيما يرونه مشاهدة في الذي يصدر عنهم من الأفعال المحكمة كالعناكب في ترتيب الحبالات لصيد الذباب الذي جعل اللّٰه أرزاقهم فيه و ما يدخره بعض الحيوان من أقواتهم على ميزان معلوم و قدر مخصوص و علمهم بالأزمان و احتياطهم على نفسهم في أقواتهم فيأكلون نصف ما يدخرونه خوف الجدب فلا يجدون ما يتقوتون به كالنمل فإن كان ذلك عن نظر فهم يشبهون أهل النظر فأين عدم العقل الذي ينسب إليهم و إن كان ذلك علما ضروريا فقد أشبهونا فيما لا ندركه إلا بالضرورة فلا فرق بيننا و بينهم لو رفع اللّٰه عن أعيننا غطاء العمي كما رفعه اللّٰه عن أبصار أهل الشهود و بصائر أهل الايمان و في عشق الأشجار بعضها بعضا التي لها اللقاح فإن ذلك فيها أظهر آيات لأهل النظر إذا أنصفوا

[أن العاقل إذا أراد أن يوصل إليك ما في نفسه لم يقتصر في ذلك التوصيل على العبارة بنظم حروف]

و اعلم أن العاقل كان من كان من أي أصناف العالم إن شئت إذا أراد أن يوصل إليك ما في نفسه لم يقتصر في ذلك التوصيل على العبارة بنظم حروف و لا بد فإن الغرض من ذلك إذا كان إنما هو إعلامك بالأمر الذي في نفس ذلك المعلم إياك فوقتا بالعبارة اللفظية المنطوق بها في اللسان المسماة في العرف قولا و كلاما و وقتا بالإشارة بيد أو برأس أو بما كان و وقتا بكتاب و رقوم و وقتا بما يحدث من ذلك المريد إفهامك بما يريد الحق أن يفهمك فيوجد فيك أثرا تعرف منه ما في نفسه و يسمى هذا كله أيضا كلاما كما قال تعالى ﴿أَخْرَجْنٰا لَهُمْ دَابَّةً مِنَ الْأَرْضِ تُكَلِّمُهُمْ﴾ [النمل:82] فأخبر أنها تكلمنا و ذلك أنها إذا خرجت من أجياد و هي دابة أهلب كثيرة الشعر لا يعرف قبلها من دبرها يقال لها الجساسة فتنفخ فتسم بنفخها وجوه الناس شرقا و غربا جنوبا و شمالا برا و بحرا فيرتقم في جبين كل شخص ما هو عليه في علم اللّٰه من إيمان و كفر فيقول من سمته مؤمنا لمن سمته كافرا يا كافر أعطني كذا و كذا و ما يريد أن يقول له فلا يغضب لذلك الاسم لأنه يعلم أنه مكتوب في جبينه كتابة لا يمكنه إزالتها فيقول الكافر للمؤمن نعم أو لا في قضاء ما طلب منه بحسب ما يقع فكلامها المنسوب إليها ما هو في العموم سوى ما وسمت به الوجوه بنفختها و إن كان لها كلام مع من يشاهدها أو يجالسها من أي أهل لسان كان فهي تكلمه بلسانه من عرب أو عجم على اختلاف اصطلاحاتهم يعلم ذلك كله و



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