الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

لأننا بعيون الوجه نبصره *** و كلنا وجهه و الوجه محدود

هو الوجود و من في الكون صورته *** فليس ثم سوى الرحمن موجود

الدار داران دار الدار يعمرها *** دار اللطيف فما في الكون تجريد

و لو لا أن الحقائق تعطي أن المال إلى الرحمة في الدار الأخرى فيرحمه معنى و حسا فثم من تكون الرحمة به عين العافية لا غير و ارتفاع الآلام و هذا مخصوص بأهل النار الذين هم أهلها فهم لا يموتون فيها لما حصل لهم فيها من العافية بزوال الآلام فاستعذبوا ذلك فهم أصحاب عذاب لا أصحاب ألم و لا يحيون أي ما لهم نعيم كنعيم أهل الجنان الذي هو أمر زائد على كونهم عافاهم من دار الشقاء

في القلب منك لهيب ليس يطفيه *** إلا الذي بشهود الحس ينشيه

إني أخاف على الأشراف من شرف *** فمن يمر على قلبي فينبيه

إذا أتى صاحب العاهات يطلبه *** فإنه بشهود الحال يبريه

و ما يعيد على قلبي تنعمه *** إلا الذي كان قبل اليوم يبديه

[أن العلم هو السعادة]

و اعلم أنه من زعم اليوم أن العلم هو السعادة فإنه صادق بأن العلم هو السعادة و به أقول و لكن فاته ما أدركه أهل الكشف و هو أنه إذا أراد اللّٰه شقاوة العبد أزال عنه العلم فإنه لم يكن العلم له ذاتيا بل اكتسبه و ما كان مكتسبا فجائز زواله و يكسوه حلة الجهل فإن عين انتزاع العلم جهل و لا يبقى عليه من العلم إلا العلم بأنه قد انتزع عنه العلم فلو لم يبق اللّٰه تعالى عليه هذا العلم بانتزاع العلم لما تعذب فإن الجاهل الذي لا يعلم أنه جاهل فارح مسرور لكونه لا يدري ما فاته فلو علم أنه قد فاته خير كثير ما فرح بحاله و لتالم من حينه فما تألم إلا بعلمه ما فاته أو مما كان عليه فسلبه و لقد أصابني ألم في ذراعي فرجعت إلى اللّٰه بالشكوى رجوع أيوب عليه السّلام أدبا مع اللّٰه حتى لا أقاوم القهر الإلهي كما يفعله أهل الجهل بالله و يدعون في ذلك أنهم أهل تسليم و تفويض و عدم اعتراض فجمعوا بين جهالتين و لما تحققت ما حققني اللّٰه به في ذلك الوجع قلت

شكوت منه و من ذراعي *** و ذاك مني لضيق باعي



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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