الفتوحات المكية

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تذكر ما أنزله اللّٰه عليه في القرآن فزال عنه رعب نسبة الصلاة إلى اللّٰه بما ذكره به و كان من أمر الإسراء ما كان و له موضع غير هذا نذكره فيه إن شاء اللّٰه فمن أقامه اللّٰه بين الصورتين لا يبالي لأيتهما سجد فإن رأى هذا الذي كوشف بالصورتين تصافح الصورتين دون سجود إحداهما للأخرى فهي علامة له على كمال الصورة في حق ذلك الإنسان الخاص و إن رأى السجود من الصورة الإنسانية للصورة الأخرى الإلهية فيعلم عند ذلك أن الصورة الإنسانية الكاملة في مقام مشاهدة العين لا مشاهدة الصورة فيوافقها في السجود لها فإن رأى السجود من الصورة الإلهية للصورة الإنسانية هنالك من قوله ﴿هُوَ الَّذِي يُصَلِّي عَلَيْكُمْ﴾ [الأحزاب:43] لم يوافقها في السجود فإن وافقها هلك بل من حصل في ذلك المقام يعرف الأمور على ما هي عليه فإنه يعلم أن الصلاة من اللّٰه على العبد الكامل لا للعبد الكامل و الصلاة من العبد الكامل لله لا على اللّٰه و من حصل له هذا الفرقان فقد جمع بين القرآن و الفرقان و هذا مشهد عزيز ما رأيت له ذائقا و هو من أتم المعارف و لما نزل القرآن نزل على قلب محمد ﷺ و على قلوب التالين له دائما التي في صدورهم في داخل أجسامهم لا أعني اللطيفة الإنسانية التي لا تتحيز و لا تقبل الاتصاف بالدخول و الخروج فيقوم للنفس الناطقة القلب الذي في الصدر ليصير لها مقام المصحف المكتوب للبصر فمن هناك تتلقاه النفس الناطقة و سبب ذلك أنه لما قام لها التفوق و الفضل على الجسم المركب الكثيف بما أعطيته من تدبيره و التصرف فيه و رأته دونها في المرتبة لجهلها بما هو الأمر عليه و ما علمت أنه من الأمور المتممة لكمالها فجعل اللّٰه القلب الذي في داخل الجسم في صدره مصحفا و كتابا مرقوما تنظر فيه النفس الناطقة فتتصف بالعلم و تتحلى به بحسب الآية التي تنظر فيها فتفتقر إلى هذا المحل لما تستفيده بسببه لكون الحق اتخذه محلا لكلامه و رقمه فيه فنزلت بهذا عن ذلك التفوق الذي كان قد أعجبت به و عرفت قدرها و رأت أن ذلك القلب مهبط الملائكة بالروح الذي هو كلام اللّٰه و ما رأت تلك الملائكة النازلة تنظر إليها و لا تكلمها إنما ترقم في القلب ما تنزل به و النفس تقرأ ما نزل فيه مرقوما فتعلم في فهمها عن اللّٰه أن مراد اللّٰه بذلك تعليمها و تأديبها لما طرأ عليها من خلل العجب بنفسها فأقرت و اعترفت بأن نسبة اللّٰه إلى كل شيء نسبة واحدة من غير تفاضل فلم تر لها تفوقا على شيء من المخلوقات من ملأ أعلى أو أدنى و لا تفضيل و لا ترجيح في العالم و لكن من حيث الدلالة و نسبة الحق لا من حيث هو العالم فإنه من حيث هو العالم يكون ترجيح بعضهم على بعض و يظهر فيه التفاوت فاعلم إن النفس الناطقة من الإنسان إذا أراد اللّٰه بها خيرا كشف لها عن نطق جميع أجزاء بدنها كلها بالتسبيح و الثناء على اللّٰه بحمده لا بحمد من عندها و لا ترى فيهم فتورا و لا غفلة و لا اشتغالا و رأت ذاتها غافلة عما يجب لله تعالى عليها من الذكر مفرطة مشتغلة عن اللّٰه بأغراضها متوجهة نحو الأمور التي تحجبها عن اللّٰه و الوقوف عند حدوده فيعظم العالم عندها و تعلم أنه شعائر اللّٰه التي يجب عليها تعظيمها و حرمات اللّٰه و تصغر عندها نفسها و تعلم أن لو تميزت عن جسمها و لم يكن جسمها من المتمات لها في نشأتها لعلمت أن الجسم ذلك المدبر لها أشرف منها فلما علمت إن ذلك الجسم أشرف منها علمت إن شرفه بما هو عليه من هذه الصفات هو عين شرفها و إنها ما أمرت بتدبيره و استخدمت في حقه و صيرت كالخديم له و توجهت عليها حقوق له من عينه و سمعه و غير ذلك إلا لشغله بالله و تسبيح خالقه فعلمت نفسها أنها مسخرة له فلو كانت هي من الاشتغال بالله في مثل هذا الاشتغال كان لها حكم جسمها و لو وكل الجسم لتدبير ذاته اشتغل عن التسبيح كما اشتغلت النفس الإنسانية و إذا علمت أنها مسخرة في حق جسمها عرفت قدرها و أنها في معرض المطالبة و المؤاخذة و السؤال و الحساب فتعين عليها في دار التكليف أداء الحقوق الواجبة عليها لله و للعالم الخارج عنها و لنفسها بما يطلبه منها جسمها و لم تتفرغ مع هذا الاشتغال إلى رؤية الأفضلية و لا تشوفت لمعرفة المراتب و هذه المرتبة أعني مرتبة أداء الحقوق أشرف المراتب في حق الإنسان و الخاسر من اشتغل عنها كما إن الرابح من اشتغل بها



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