الفتوحات المكية

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يعني ذلك المزاج الذي كان عليه فلو كان هو بعينه لقال ثم ينشره فنرجع إلى ما نريد أن نبينه من بعض علوم هذا المنزل و هو العلم الذي يدور عليه فنقول إن العالم عالمان و الحضرة حضرتان و إن كان قد تولد بينهما حضرة ثالثة من مجموعهما فالحضرة الواحدة حضرة الغيب و لها عالم يقال له عالم الغيب و الحضرة الثانية هي حضرة الحس و الشهادة و يقال لعالمها عالم الشهادة و مدرك هذا العالم بالبصر و مدرك عالم الغيب بالبصيرة و المتولد من اجتماعهما حضرة و عالم فالحضرة حضرة الخيال و العالم عالم الخيال و هو ظهور المعاني في القوالب المحسوسة كالعلم في صورة اللبن و الثبات في الدين في صورة القيد و الإسلام في صورة العمد و الايمان في صورة العروة و جبريل في صورة دحية الكلبي و في صورة الأعرابي و تمثل لمريم في صورة بشر سوى كما ظهر السواد في جسم العفص و الزاج عند اجتماعهما و لم يكن لهما ذلك الوصف في حال افتراقهما و لذلك كانت حضرة الخيال أوسع الحضرات لأنها تجمع العالمين عالم الغيب و عالم الشهادة فإن حضرة الغيب لا تسع عالم الشهادة فإنه ما بقي فيها خلاء و كذلك حضرة الشهادة فقد علمت إن حضرة الخيال أوسع بلا شك و أنت قد عاينت في حسك و على ما تعطيه نشأتك في نفسك المعاني و الروحانيين يتخيلون و يتمثلون في الأجساد المحسوسة في نظرك بحيث إذا وقع أثر في ذلك المتصور تأثر المعنى المتصور فيه في نفسه و لا شك إنك أحق بحضرة الخيال من المعاني و من الروحانيين فإن فيك القوة المتخيلة و هي من بعض قواك التي أوجدك الحق عليها فأنت أحق بملكها و التصرف فيها من المعنى إذ المعنى لا يتصف بأن له قوة خيال و لا الروحانيين من الملإ الأعلى بأن لهم في نشأتهم قوة خيال و مع هذا فلهم التميز في هذه الحضرة الخيالية بالتمثل و التخيل فأنت أولى بالتخيل و التمثل منهم حيث فيك هذه الحضرة حقيقة فالعامة لا تعرفها و لا تدخلها إلا إذا نامت و رجعت القوي الحساسة إليها و الخواص يرون ذلك في اليقظة لقوة التحقق بها فتصور الإنسان في عالم الغيب في حضرة الخيال أقرب و أولى و لا سيما و هو في نشأته له في عالم الغيب دخول بروحه الذي هو باطنه و له في عالم الشهادة دخول بجسمه الذي هو ظاهره و الروحاني ليس كذلك و ليس له دخول في عالم الشهادة إلا بالتمثل في عالم الخيال فيشهده الحس في الخيال صورة ممثلة نوما و يقظة فإن تميز الإنسان في عالم الغيب فله ذلك فإنه يتميز فيه حقيقة لا خيالا من حيث روحه الذي لا يدركه الحس و هو من عالم الغيب و إن أراد أن يتروحن بجسمه و يظهر به في عالم الغيب وجد المساعد و هو روحه المرتبط بتدبيره فهو أقرب إلى التمثل في عالم الغيب من الروحاني المتمثل في صورة عالم الشهادة و لكن هذا المقام يكتسب و ينال مثل قضيب البان رحمه اللّٰه فلقد كان له هذا المقام ففي قوة الإنسان ما ليس في قوة عالم الغيب فإن في قوة الإنسان من حيث روحه التمثل في غير صورته في عالم الشهادة فيظهر الإنسان في أي صورة شاء من صور بنى آدم أمثاله و في صور الحيوانات و النبات و الحجر و قد وقع ذلك منهم و لقد أخبرني شيخ من شيوخ طريق اللّٰه و هو عندي ثقة عدل و فاوضته في هذه المسألة فقال أنا أخبرك بما شاهدته من ذلك تصديقا لقولك و ذلك أني صحبت رجلا ممن له هذا المقام و لم يكن عندي من ذلك خبر فسألته الصحبة من بغداد إلى الموصل في ركب الحاج عند رجوعه فقال لي إذا عزمت فلا تبتدئني بشيء من مأكول و مشروب حتى أكون أنا الذي أطلبه منك فعاهدته على ذلك و كان قد أسن فركب في شقة محارة و أنا أمشي على قدمي قريبا منه لئلا تعرض له حاجة إلي فمرض بعلة الإسهال و ضعف فصعب ذلك علي و هو لا يتداوى بما يقطعه و يزيل عنه القيام قال فقلت له يا سيدي أروح لي هذا الرجل الذي على سبيل صاحب سنجار آخذ من المارستان دواء قابضا فنظر إلي كالمنكر و قال الشرط أملك فسكت عنه قال فزاد به الحال فما قدرت على السكوت فلما نزل الركب بالليل و أسرجت المشاعل و قصد صاحب سبيل سنجار و كان خادما أسود و قد وقفت الرجال بين يديه و أصحاب العلل يجيئون إليه يطلبون منه الأدوية بحسب عللهم و أمراضهم فقلت له يا مولاي أرح قلبي و فرج عني بأن تأمرني آتيك بدواء من عند هذا الرجل قال فتبسم و قال لي رح إليه قال فجئت إليه و لم يكن يعرفني قبل ذلك و لا كنت أنا على حالة و بزة توجب تعظيمي فمشيت إليه و أنا خائف إن يردني أو ينتهرني لما كان فيه من الشغل فوقفت على رأسه بين الناس فلما وقعت عينه علي قام إلي و أقعدني و سلم علي بفرح و بسط و تبشبش و قال ما حاجتك فقلت له عن حال الشيخ و مرضه فاستدعى بالدواء من الوكيل على أكمل ما يمكن و اعتذر و قال لي تعنيت و هلا بعثت إلي في ذلك و قمت أخرج من الخيمة فقام لقيامى و مشت المشاعل بين يدي فودعته بعد ما مشى معي خطوات و أمر المشاعلي أن يمشي بالضوء أمامي فقلت له ما الحاجة و خفت من الشيخ أن يعز ذلك عليه فرجع المشاعلي و جئت فوجدت الشيخ على حاله كما تركته فقال لي ما فعلت فقلت له ببركتك أكرمني و هو لا يعرفني و لا أعرفه و وصفت له تفصيل ما كان منه فتبسم الشيخ و قال لي يا حامد أنا أكرمتك ما كان الخادم الذي أكرمك لا شك أني رأيتك كثير الجزع علي لعلتى فأردت إن أريح سرك فأمرتك إن تمشي إليه و خفت عليك منه لئلا يفعل معك ما يفعله مع الناس من الإهانة و الطرد فترجع منكسرا فتجردت عن هيكلي و تصورت لك في صورته فأكرمتك و عظمت قدرك و فعلت معك ما رأيت إلى أن انفصلت و هذا دواؤك لا أستعمله فبقيت مبهوتا فقال لي لا تعجل ارجع إليه و انظر إلى ما يفعل بك قال فجئت إليه و سلمت عليه فلم يقبل علي و طردت فذهبت متعجبا فرجعت إلى الشيخ فقصصت إليه ما جرى لي فقال ما قلت لك فقلت له عجبا كيف رجعت خادما أسود فقال الأمر كما رأيت و مثل هذه الحكاية عن الرجال كثير و هذا يشبه علم السيمياء و ليس بعلم السيمياء و الفرق بيننا في هذا المقام و بين علم السيمياء إنك إذا أكلت بالسيمياء أكلت و لا تجد شبعا و الذي يقبض عندك مما تقبضه من هذا العلم أنما ذلك في نظرك ثم تطلبه فلا تجده و إذا أراك صاحب هذا العلم السيماوي تدخل الحمام ثم ترجع إلى نفسك لا ترى لذلك حقيقة بل كل ما تراه بطريق السيمياء إنما هو مثل ما يرى النائم فإذا انتبه لم يجد شيئا مما رآه فإن صاحب علم السيمياء له سلطان و تحكم على خيالك بخواص الأسماء أو الحروف أو القلقطيرات فإن السيمياء لها ضروب أكثفها القلقطيرات و ألطفها التلفظ بالكلام الذي يخطف به بصر الناظر عن الحس و يصرفه إلى خياله فيرى مثل ما يرى النائم و هو في يقظته و هذا المقام الذي ذكرناه ليس كذلك فإنك إن أكلت به شبعت و إن مسكت فيه شيئا من ذهب أو ثياب أو ما كان بقي معك على حاله لا يتغير و قد وجدنا هذا المقام من نفوسنا و أخذناه ذوقا في أول سلوكنا مع روحانية عيسى عليه السّلام و لهذا



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