الفتوحات المكية

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على وجهين الوجه الواحد أنه نفى أن تدركه الأبصار على طريق التنبيه على الحقائق و إنما يدركه المبصرون بالأبصار لا الأبصار و الوجه الثاني لا تدركه الأبصار المقيدة بالجارحة كما قررنا فإذا لم تتقيد أدركته و هو عين النور الذي وقع فيه التشبيه بالمصباح و هو النور الذي ﴿لَيْسَ كَمِثْلِهِ شَيْءٌ﴾ [الشورى:11] فلا يقبل التشبيه لأنه لا صفة له و كل من له صفة فإنه يقبل التشبيه لأن الصفات تتنوع في القابلين لها بحسب ما تعطيه حقيقة الموصوف كالعلم يتصف به الحق و السمع و البصر و القدرة و الإرادة و القول و غير ذلك من الصفات و يتصف بها المخلوق و معلوم أن نسبتها إلى المخلوق لا تكون على حد نسبتها إلى الخالق بل نسبتها إلى البشر تخالف نسبتها إلى الملك و كلاهما مخلوقان فاعلم ذلك فهذه اللوائح التي تلوح للبصر مشاهد ذاتية ثبوتية ما هي سلبية فإن الوصف السلبي ليس من إدراك البصر بل ذلك من إدراك العقول و ما يدرك بالعقل لا يدخل في اللوائح و أما ما يلوح من أنوار الأسماء الإلهية عند مشاهدة آثارها فتعلم بأنوارها أي تظهرها أنوارها فالاسم الإلهي روح لأثره و أثره صورته و البصر لا يقع من الاسم إلا على أثره الذي هو صورته كما تقع على صورة زيد الجسمية و يصح أن يقال رأى زيدا من غير تأويل و يصدق مع كون زيد له روح مدبرة غيب فيه لها صورة و هي جسديتها فأثر الأسماء الإلهية صور الأسماء فمن شاهد الآثار فقد صدق في أنه شاهد الأسماء فلوائحها أن تجمع بين نسبة ذلك الأثر المشهود و بين الاسم الذي هو روح صورة ذلك الأثر كما ترى شخصا و لكن لا تعرف أنه زيد المطلوب عندك و يراه آخر ممن يعرفه فيعرف أنه رأى زيدا فهذا العارف هو صاحب اللوائح و الآخر ليس هو من أصحاب اللوائح لأنه ما لاح له ارتباط الاسم بهذه الصورة و الفرق بين الشخصين المدركين معلوم فما كل من رأى علم ما رأى فهذه اللوائح الحالية لمن أراد معرفتها على الاختصار و الاقتصاد ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

«الباب الثاني عشر و مائتان في التلوين»

إن التلون من حال إلى حال *** دليل صدق على العالي من الحالي



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