الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

«قوله ﷺ إن لنفسك عليك حقا و هي النفس الحيوانية و لعينك عليك حقا» فهذا كله من حقوق الأم التي هي طبيعة الإنسان و أبوه هو الروح الإلهي و هو النور فإذا ترك أمورا كثيرة من محابه من حيث نوريته فإنه يتصف بأنه مضرور و هو مأمور بالصبر فهذا معنى يصبر على الضراء و إن كانت حقيقته تنفر من ذلك و لكن أمر اللّٰه أوجب ثم قال له في صبره ﴿وَ اصْبِرْ وَ مٰا صَبْرُكَ إِلاّٰ بِاللّٰهِ﴾ [النحل:127] فإن اللّٰه تسمى بالاسم الصبور فكأنه قال له أنا على عزة جلالي قد وصفت نفسي بأني أؤذى و إني أحلم و أصبر و تسميت بالصبور و أنا غير مأمور و لا محجور علي فأدخلت نفسي تحت محاب خلقي و تركت ما ينبغي لي لما ينبغي لخلقي إيثار الهم و رحمة مني بهم فأنت أحق بأن تصبر على الضراء بي أي بسبب أمري و بسبب كوني صبورا على أذى خلقي حين وصفوني بما لا يقتضيه جلالي و هذا من كون اللّٰه محبا في هذا المجلى و أما كونه كذلك لما كلفه محبوبه من تدبير نشأته الطبيعية فإذا كان المحبوب الخلق و المحب الحق فصورة التكليف ما يطلبه العبد من سيده إذا عرف أنه محبوب لسيده من تدبير مصالحه بشرط الموافقة لأغراضه و محابه فيفعل الحق معه ذلك فهذا ذلك المعنى الذي نعت به المحب

(منصة و مجلى)
نعت المحب بأنه هائم القلب

لما كان القلب سمي بذلك لكثرة تصرفاته و تقليبه كثرت وجوهه و توجهاته و هذه صفة الهائم و لا سيما إذا كان الحق يظهر له في كل وجه يتوجه إليه و في كل مصرف يتصرف فيه فإنه ناظر إلى عين محبوبه في كل وجه المحب اللّٰه ﴿كُلَّ يَوْمٍ هُوَ فِي شَأْنٍ﴾ [الرحمن:29] «ما ترددت في شيء أنا فاعله»



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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