الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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﴿يَحْسَبُهُ الظَّمْآنُ مٰاءً﴾ [النور:39] و ذلك لظمئه لو لا ذلك ما حسبه ماء لأن الماء موضع حاجته فيلجأ إليه لكونه مطلوبه و محبوبه لما فيه من سر الحياة ف‌ ﴿إِذٰا جٰاءَهُ لَمْ يَجِدْهُ شَيْئاً﴾ [النور:39] و إذا لم يجده شيئا ﴿وَجَدَ اللّٰهَ عِنْدَهُ﴾ [النور:39] عوضا من الماء فكان قصده حسا للماء و اللّٰه يقصد به إليه من حيث لا يشعر فكما أنه تعالى يمكر بالعبد من حيث لا يشعر كذلك يعتني بالعبد في الالتجاء إليه و الرجوع إليه و الاعتماد عليه بقطع الأسباب عنه عند ما يبديها له من حيث لا يشعر فوجود اللّٰه عنده عند فقد الماء المتخيل له في السراب هو رجوعه إلى اللّٰه لما تقطعت به الأسباب و تغلقت دون مطلوبه الأبواب رجع إلى من ﴿بِيَدِهِ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيْءٍ﴾ [المؤمنون:88] و هو كان المطلوب به من اللّٰه هذا فعله مع أحباه يردهم إليه اضطرارا و اختيارا كذلك أرواحهم يحسبونها قائمة بحقوق اللّٰه التي فرضها عليها و إنها المتصرفة عن أمر اللّٰه محبة لله و شوقا إلى مرضاته ليراها حيث أمرها فإذا كشف لها الغطاء و احتد بصرها وجدت نفسها كالسراب في شكل الماء فلم تر قائما بحقوق اللّٰه إلا خالق الأفعال و هو اللّٰه تعالى فوجدت اللّٰه عين ما تخيلت أنه عينها فذهبت عينها عنه و بقي المشهود الحق بعين الحق كما فنى ماء السراب عن السراب و السراب مشهود في نفسه و ليس بماء كذلك الروح موجود في نفسه و ليس بفاعل فعلم عند ذلك أن المحب عين المحبوب و أنه ما أحب سواه و لا يكون إلا كذلك و ألطف من هذا النحول في الأرواح فلا يكون و أما النوع المتعلق من النحول بكثائفهم فهو ما يتعلق به الحس من تغير ألوانهم و ذهاب لحوم أبدانهم لاستيلاء جولان أفكارهم في أداء ما كلفهم المحبوب أداءه مما افترضه عليهم فبذلوا المجهود ليتصفوا بالوفاء بالعهود إذ كانوا عاهدوا اللّٰه على ذلك و عقدوا عليه في إيمانهم به و برسوله و سمعوه يقول آمرا ﴿يٰا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا أَوْفُوا بِالْعُقُودِ﴾ [المائدة:1]



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