الفتوحات المكية

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(القسم الثالث)و هو أسماء الأفعال

و هي صريح كالمصور و مضمن مثل قوله ﴿وَ مَكَرَ اللّٰهُ﴾ [آل عمران:54] و أسماء الأفعال كلها أسماء الإرادة

(القسم الرابع)أسماء الاشتراك

كاسمه المؤمن و الرب فالمؤمن المصدق و المؤمن معطي الأمان و الرب المالك و الرب المصلح و الرب السيد و الرب المربي و الرب الثابت فإذا حصل بيدك اسم من الأسماء الإلهية فانظر في أية مرتبة هو من هذه المراتب فادع به من حيث مرتبته لا تخرجه عنها جملة واحدة و لا تغفل عن دلالته على الذات التي لها هذه النعوت كلها تكن أحدي العين في عين الكثرة فتكون الواحد الكثير فإن المراتب و الحقائق تطلب الأسماء لمن هي صفاته حتى إذا دعي بها زهت و علمت إن لله بها عناية حيث أطلق عليه من أحكامها أسماء و حيث جعل ذاته محلا لأحكامها فالحلم معنى معقول يطلق منه اسم على من ظهر فيه حكمه و هو الحليم مع المقدرة و المتجاوز و الصفوح و العفو و كذلك مرتبة الكرم معنى معقول يطلق منه اسما على من ظهر منه حكمه كالكريم و المعطي و الجواد و الوهاب و المنعم و هكذا تأخذ جميع الأسماء على حد ما أشرت إليك و لا تتعد بها مراتبها مع علمك أنه ليس في أسماء اللّٰه ترادف و إنها كلها متباينة فهذا قد أبنت لك عن العلم الأول من المعرفة الذي لأهل اللّٰه مجملا مع نبذ من التفصيل فتفهم ذلك

النوع الثاني من علوم المعرفة
و هو علم التجلي

اعلم أن التجلي الإلهي دائم لا حجاب عليه و لكن لا يعرف أنه هو و ذلك أن اللّٰه لما خلق العالم أسمعه كلامه في حال عدمه و هو قوله كن و كان مشهودا له سبحانه و لم يكن الحق مشهودا له و كان على أعين الممكنات حجاب العدم لم يكن غيره فلا تدرك الموجود و هي معدومة كالنور ينفر الظلمة فإنه لا بقاء للظلمة مع وجود النور كذلك العدم و الوجود فلما أمرها بالتكوين لإمكانها و استعداد قبولها سارعت لترى ما ثم لأن في قوتها الرؤية كما في قوتها السمع من حيث الثبوت لا من حيث الوجود فعند ما وجد الممكن انصبغ بالنور فزال العدم و فتح عينيه فرأى الوجود الخير المحض فلم يعلم ما هو و لا علم أنه الذي أمره بالتكوين فأفاده التجلي علما بما رآه لا علما بأنه هو الذي أعطاه الوجود فلما انصبغ بالنور التفت على اليسار فرأى العدم فتحققه فإذا هو ينبعث منه كالظل المنبعث من الشخص إذا قابلة النور فقال ما هذا فقال له النور من الجانب الأيمن هذا هو أنت فلو كنت أنت النور لما ظهر للظل عين فإنا النور و أنا مذهبه و نورك الذي أنت عليه إنما هو من حيث ما يواجهني من ذاتك ذلك لتعلم أنك لست أنا فإنا النور بلا ظل و أنت النور الممتزج لإمكانك فإن نسبت إلى قبلتك و إن نسبت إلى العدم قبلك فأنت بين الوجود و العدم و أنت بين الخير و الشر فإن أعرضت عن ظلك فقد أعرضت عن إمكانك و إذا أعرضت عن إمكانك جهلتني و لم تعرفني فإنه لا دليل لك على أني إلهك و ربك و موجدك إلا إمكانك و هو شهودك ظلك و إن أعرضت عن نورك بالكلية و لم تزل مشاهدا ظلك لم تعلم أنه ضل إمكانك و تخيلت أنه ظل المحال و المحال و الواجب متقابلان من جميع الوجوه فإن دعوتك لم تجبني و لم تسمعني فإنه يصمك ذلك المشهود عن دعائي فلا تنظر إلي نظرا يفنيك عن ظلك فتدعى أنك أنا فتقع في الجهل و لا تنظر إلى ظلك نظرا يفنيك عني فإنه يورثك الصمم فتجهل ما خلقتك له فكن تارة و تارة و ما خلق اللّٰه لك عينين إلا لتشهدني بالواحدة و تشهد ظلك بالعين الأخرى و قد قلت لك في معرض الامتنان ﴿أَ لَمْ نَجْعَلْ لَهُ عَيْنَيْنِ وَ لِسٰاناً وَ شَفَتَيْنِ وَ هَدَيْنٰاهُ النَّجْدَيْنِ﴾



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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