الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 4305 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

[ما ذكره القشيري في باب الغيرة و ليس هو من الغيرة]

ذكر في باب الغيرة القشيري في رسالته عن بعضهم أنه قيل له متى تستريح قال إذا لم أر له ذاكرا و ليس هذا بغيرة فالقشيري أخطأ حيث جعل مثل هذا في باب الغيرة من كتابه و تخيل أن الشبلي في حال رؤية الذاكرين اللّٰه على الغفلة و بعدم الحرمة مثل من يذكره بلغو الايمان و الايمان الفاجرة و ذكر اللّٰه في طلب المعاش في الأسواق فغار أن يذكر بهذه الصفة لما لم يوف المذكور حقه من الحرمة عند الذكر و الشبلي ما يبعد أن يكون هذا قصده بذلك القول في بدء أمره و في وقت حجابه عن معرفة ربه و أما مع المعرفة فلا يكون هذا يعني قوله إذا لم أر له ذاكرا و إن معنى ذلك عندنا في حق كبراء العارفين أن الذكر لا يكون مع المشاهدة فلا بد للذاكر أن يكون محجوبا و إن كان اللّٰه جليس الذاكر و لكنه من وراء حجاب الذكر و كل من هو خلف حجاب من مطلوبه فإنه لا راحة عنده فإذا رفع الحجاب وقعت المشاهدة و زال الذكر بتجلى المذكور فلذلك قال إنما أستريح إذا لم أر له ذاكرا فطلب إن تكون مشاهدته تمنعه عن إدراك الذاكرين أو تمنى للذاكرين أن يكونوا في مقام الشهود الذي يمنعهم من الذكر إذ المؤمن يحب لأخيه ما يحب لنفسه على هذا يخرج قول هذا الرجل إن كان من العارفين و على ذوق آخر و هو أنه لا يستريح إلا إذا رأى أن الذكر هو اللّٰه لا الكون إذا كان الحق لسانه كما هو سمعه و بصره و يده فيستريح لأنه رأى أنه قد ذكره من يعلم كيف يذكره إذ كان هو الذاكر نفسه بلسان عبده فاستراح عند ذلك فلم ير له ذاكرا غيره

[غيرة الرسول و أكابر الأولياء]

و أما غيرة الرسول و أكابر الأولياء فغيرتهم لله كما قلنا و هي غيرة أدب و الغيرة كتمان ما ينبغي أن يكتم لعدم احترامه لو ظهر عند من لا يقدر قدره كما قال تعالى



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!