الفتوحات المكية

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الفراسة من الافتراس فهو نعت إلهي قهري حكمه في الشوارد خوفا من صاحب هذه الصفة و الشرود سببه خوف طبيعي إما على النفس إن تفارق بدنها الذي ألفته و ظهر سلطانها فيه و إما من حيث ما ينسب إليها من الذم الذي يطلقه عليها المفترس بالفراسة الطبيعية أو بالفراسة الإلهية فلهذا لا تتعلق إلا بالشاردين لأن الغالب على العالم الجهل بنفوسهم و سبب جهلهم التركيب فلو كانوا بسائط غير مركبين من العناصر لم يتصفوا بهذا الوصف

[المتفرس له علامات في التفرس فيه بتلك العلامات يستدل عليه و بها يهديه]

فاعلم أن الفراسة إذا اتصف بها العبد له في المتفرس فيه علامات بتلك العلامات يستدل و العلامات منها طبيعية مزاجية و هي الفراسة الحكمية و منها روحانية نفسية إيمانية و هي الفراسة الإلهية و هو نور إلهي في عين بصيرة المؤمن يعرف به إذ يكشف له ما وقع من المتفرس فيه أو ما يقع منه أو ما يؤول إليه أمره ففراسة المؤمن أعم تعلقا من الفراسة الطبيعية فإن الفراسة غاية ما تعطي من العلوم العلم بالأخلاق المذمومة و المحمودة و ما يؤدي إلى العجلة في الأشياء و الريث فيها و الحركات البدنية كلها و سأورد في هذا الباب طرفا منهما أعني من الفراستين بعد تحقيق ماهيتهما

[الفراسة الإلهية تعطى ما تعطيه الفراسة الطبيعية و زيادة]

و الفراسة الإلهية تتعلق بعلم ما تعطيه الفراسة الطبيعية و زيادة و هي إنها تعطي معرفة السعيد من الشقي و معرفة الحركة من الإنسان المرضية عند اللّٰه من غير المرضية التي وقعت منه من غير حضور صاحب هذا النور فإذا حضر بين يديه بعد انقضاء زمان تلك الحركة و قد ترك ذلك العمل في العضو الذي كان منه ذلك العمل علامة لا يعرفها إلا صاحب الفراسة فيقول له فيها بحسب ما كانت الحركة من طاعة و معصية كما اتفق لعثمان رضي اللّٰه عنه و ذلك أنه دخل عليه رجل فعند ما وقعت عليه عينه قال يا سبحان اللّٰه ما بال رجال لا يغضون أبصارهم عن محارم اللّٰه و كان ذلك الرجل قد أرسل نظره فيما لا يحل له إما في نظره إلى عورة إنسان أو نظر في قعر بيت مسكون و ما أشبه ذلك فقال له الرجل أ وحي بعد رسول اللّٰه ﷺ فقال لا و لكنها فراسة أ لم تسمع إلى



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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