الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

فإن قلت و ما الشاهد قلنا ما تعطيه المشاهدة من الأثر في قلب المشاهد و هو على صورة ما يضبطه القلب من رؤية المشهود و على الشاهد يرد لوارد

[الوارد]

فإن قلت و ما الوارد قلنا ما يرد على القلب من الخواطر المحمودة من غير تعمل و كل ما يرد على القلب من كل اسم إلهي و هو الذي يعطي أحيانا حق اليقين

[حق اليقين]

فإن قلت و ما حق اليقين قلنا ما حصل من العلم بالعلة و لكن بعد عين اليقين

[عين اليقين]

فإن قلت و ما عين اليقين قلت ما أعطته المشاهدة و الكشف ابتداء و بعد علم اليقين

[علم اليقين]

فإن قلت و ما علم اليقين قلنا ما أعطاه الدليل الذي لا يحتمل الشبه الواردة من الخاطر

[الخاطر]

فإن قلت و ما الخاطر قلنا ما يرد على القلب و الضمير من الخطاب ربانيا كان أو غير رباني و لكن من غير إقامة فإن أقام فهو حديث نفس فصاحبه مفتقر إلى النفس

[النفس]

فإن قلت و ما النفس قلنا روح يسلطه اللّٰه على نار القلب ليطفئ شررها لأجل سلطان الحقيقة

[الحقيقة]

فإن قلت و ما الحقيقة قلنا سلب آثار أوصافك عنك بأوصافه بأنه الفاعل بك فيك منك لا أنت ﴿مٰا مِنْ دَابَّةٍ إِلاّٰ هُوَ آخِذٌ بِنٰاصِيَتِهٰا﴾ فكأنه حال البعد

[البعد]

فإن قلت و ما البعد قلنا الإقامة على المخالفات و قد يكون البعد منك و تختلف باختلاف الأحوال فيدل على ما يعطيه قرائن الأحوال و كذلك القرب

[القرب]

فإن قلت و ما القرب قلنا القيام بالطاعة و قد يطلق على حقيقة قاب قوسين و هو قدر الخط الذي يقسم قطري الدائرة فيشقها بقسمين و هو غاية القرب المشهود و لا يدركه إلا صاحب إثبات لا صاحب محو

[المحو و الإثبات]

فإن قلت فما المحو و ما الإثبات قلنا الإثبات إقامة أحكام العبادات و إثبات المواصلات و أما المحو فرفع أوصاف العادة و إزالة العلة و هو أيضا ما ستره الحق و نفاه و عنه يكون الذوق

[الذوق]

فإن قلت و ما الذوق قلنا أول مبادي التجلي المؤدي إلى الشرب

[الشرب]

فإن قلت و ما الشرب قلنا الوسط من التجلي من مقام يستدعي الري و قد يكون من مقام لا يستدعي الري و قد يكون مزاج الشارب لا يقبل الري

[الري]

فإن قلت و ما الري قلنا غايات التجلي في كل مقام فإن كان المشروب خمرا أدى إلى السكر



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