الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

(السؤال الثامن و الأربعون و مائة)قوله السلام عليك أيها النبي

الجواب لما كانت الأنبياء بصفة تقتضي الاعتراض و التسليم شرع للمؤمن التسليم و من سلم لم يطلب على العلة في كل ما جاء به النبي و لا في مسألة من مسائله فإن جاء النبي بالعلة قبلها كما قبل المعلول و إن لم يجيء بها سلم فقال السلام عليك أيها النبي و قد بينا معناها في باب الصلاة من هذا الكتاب في فصول التشهد و إذا قال هذا النبي فالمسلم عليه منه هو الروح

(السؤال التاسع و الأربعون و مائة)قوله السلام علينا و على عباد اللّٰه الصالحين

الجواب يريد التسليم علينا لنا إذ فينا ما يقتضيه الاعتراض منا علينا فنلزم نفوسنا التسليم فيه لنا و لا نعترضه و لا سيما إذا رأينا أن الحكم الذي يقتضي الاعتراض صدر من الظاهر في هذا المظهر الذي هو عيني فنسلم و لا بد علينا و على عباد اللّٰه الصالحين للاشتراك في العطف أي لا يصح هذا العطف بعباد اللّٰه الصالحين إلا بأن يكون بتلك الصفة الصالحة و حينئذ يكون السلام علينا حقيقة و قد بينا أيضا هذا المعنى في باب الصلاة من هذا الكتاب في فصول التشهد

[الإنسان في صلاته ينبغي أن يكون أجنبيا عن نفسه بربه]

قال تعالى ﴿فَسَلِّمُوا عَلىٰ أَنْفُسِكُمْ تَحِيَّةً مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ مُبٰارَكَةً طَيِّبَةً﴾ [النور:61] فقد أمرنا بالسلام علينا لنحظى بجميع المراتب في امتثال الأمر الإلهي و هذا يدلك على أن الإنسان ينبغي أن يكون في صلاته أجنبيا عن نفسه بربه حتى يصح له أن يسلم عليه بكلام ربه فإنه قال ﴿تَحِيَّةً مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ مُبٰارَكَةً طَيِّبَةً﴾ [النور:61] فهو سلام اللّٰه على عبده و أنت ترجمانه إليك

(السؤال الخمسون و مائة)

«أهل بيتي أمان لأمتي» الجواب «قال صلى اللّٰه عليه و سلم سلمان منا أهل البيت»



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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