الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

فلا أعلم من العقل و لا أجهل من العقل فالعقل مستفيد أبدا فهو العالم الذي لا يعلم علمه و هو الجاهل الذي لا ينتهي جهله

(السؤال التاسع عشر و مائة)ما شراب حبه لك حتى يسكرك عن حبك له

الجواب إن أراد باللام الذي في لك و له الأجلية فجوابه مغاير لجوابه إذا كانت لا للاجلية إذ يكون المعنى ما شراب حبه إياك حتى يسكرك عن حبك إياه فجواب الوجه الأول و الثاني متغاير

[تغاير التجليات إنما كان من حيث ظهوره فيك]

نقول تغاير التجليات إنما كان من حيث ظهوره فيك فوصف نفسه بالحب من أجلك فأسكرك هذا العلم الحاصل لك من هذا التجلي عن أن تكون أنت المحب له أي المحب من أجله فلم تحب أحدا من أجله و هو أحب من أجلك فلو زلت أنت لم يتصف هو بالمحبة و أنت لا تزول فوصفه بالحب لا يزول فهذا جواب يعم الأول و الثاني لفرقان بين ما يستحقه الأول منه و الثاني دقيق غامض

[المحب لا يكون عارف و العارف لا يكون محبا]

و أما الجواب عن الثاني إن شراب حبه إياك و هو حبه إياك أن تحبه فإذا أحببته علمت حين شربت شراب حبه إياك أن حبك إياه عين حبه إياك و أسكرك عن حبك إياه مع إحساسك بأنك تحبه فلم تفرق و هو تجلى المعرفة فالمحب لا يكون عارفا أبدا و العارف لا يكون محبا أبدا فمن هاهنا يتميز المحب من العارف و المعرفة من المحبة

[رمزية شراب الخمر و رمزية شراب اللبن]

فحبه لك مسكر عن حبك له و هو شراب الخمر الذي لو شربه رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم ليلة الإسراء لغوت عامة الأمة و حبك له لا يسكرك عن حبه لك و هو شراب اللبن الذي شربه رسول اللّٰه صلى اللّٰه تعالى عليه و سلم ليلة الإسراء فأصاب اللّٰه به الفطرة التي فطر اللّٰه الخلق عليها : فاهتدت أمته في ذوقها و شربها و هو الحفظ الإلهي و العصمة و علمت ما لها و ما له في حال صحو و سكر

[حبك إياه من حبه إياك]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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