الفتوحات المكية

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و أما الحب الروحاني فخارج عن هذا الحد و بعيد عن المقدار و الشكل و ذلك أن القوي الروحانية لها التفات نسبي فمتى عمت النسب في الالتفاتات بين المحب و المحبوب عن نظر أو سماع أو علم كان ذلك الحب فإن نقص و لم تستوف النسب لم يكن حبا و معنى النسب أن الأرواح التي من شأنها أن تهب و تعطي متوجهة على الأرواح التي من شأنها أن تأخذ و تمسك و تلك تتألم بعدم القبول و هذه تتألم بعدم الفيض و إن كان لا ينعدم إلا أن كونه لم تكمل شروط الاستعداد و الزمان سمي ذلك الروح القابل عدم فيض و ليس بصحيح فكل واحد من الروحين مستفرغ الطاقة في حب الآخر فمثل هذا الحب إذا تمكن من الحبيبين لم يشك المحب فرقة محبوبه لأنه ليس من عالم الأجسام و لا الأجساد فتقع المفارقة بين الشخصين أو يؤثر فيه القرب المفرط كما فعل في الحب الطبيعي فالمعاني لا تتقيد و لا تتحيز و لا يتخيلها إلا ناقص الفطرة فإنه يصور ما ليس بصورة و هذا هو حب العارفين الذين يمتازون به عن العوام أصحاب الاتحاد فهذا محب أشبه محبوبه في الافتقار لا في الحال و المقدار و لهذا يعرف المحب قدر المحبوب من حيث ما هو محبوب

[الحب الإلهي]

و أما الحب الإلهي فمن اسمه الجميل و النور فيتقدم النور إلى أعيان الممكنات فينفر عنها ظلمة نظرها إلى نفسها و إمكانها فيحدث لها بصرا هو بصره إذ لا يرى إلا به فيتجلى لتلك العين بالاسم الجميل فتتعشق به فيصير عين ذلك الممكن مظهرا له فيبطن العين من الممكن فيه و تفني عن نفسها فلا تعرف أنها محبة له سبحانه أو تفني عنه بنفسها مع كونها على هذه الحالة فلا تعرف أنها مظهر له سبحانه و تجد من نفسها أنها تحب نفسها فإن كل شيء مجبول على حب نفسه و ما ثم ظاهر إلا هو في عين الممكن فما أحب اللّٰه إلا اللّٰه و العبد لا يتصف بالحب إذ لا حكم له فيه فإنه ما أحبه منه سواه الظاهر فيه و هو الظاهر فلا تعرف أيضا أنها محبة له فتطلبه و تحب أن تحبه من حيث إنها ناظرة إلى نفسها بعينه فنفس حبها أن تحبه هو بعينه حبها له و لهذا يوصف هذا النور بأنه له أشعة أي أنه شعشعاني لامتداده من الحق إلى عين الممكن ليكون مظهرا له بنصب الهاء لا اسم فاعل فإذا جمع من هذه صفته بين المتضادات في وصفه فذلك هو صاحب الحب الإلهي فإنه يؤدي إلى الحاقة بالعدم عند نفسه كما هو في نفس الأمر فعلامة الحب الإلهي حب جميع الكائنات في كل حضرة معنوية أو حسية أو خيالية أو متخيلة و لكل حضرة عين من اسمه النور تنظر بها إلى اسمه الجميل فيكسوها ذلك النور حلة وجود فكل محب ما أحب سوى نفسه و لهذا وصف الحق نفسه بأنه يحب المظاهر و المظاهر عدم في عين و تعلق المحبة بما ظهر و هو الظاهر فيها فتلك النسبة بين الظاهر و المظاهر هي الحب و متعلق الحب إنما هو العدم فمتعلقها هنا الدوام و الدوام ما وقع فإنه لا نهاية له و ما لا نهاية له لا يتصف بالوقوع و لما كان الحب من صفات الحق حيث قال ﴿يُحِبُّهُمْ﴾ [المائدة:54]



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