الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

منزلي حيث شئت من مستقر الأرض *** أسقى من المياه الزلالا

ليس لي والد و لا لي مولود *** أراه و لا أرى إلى عيالا

أجعل الساعد اليمين وسادي *** فإذا ما انقلبت كان الشمالا

قد تلذذت حقبة بأمور *** لو تدبرتها لكانت خيالا

فهؤلاء الزهاد هم الذين آثروا الحق على الخلق و على نفوسهم فكل أمر لله فيه رضي و إيثار قاموا به و أقبلوا عليه و ما كان للحق عنه إعراض أعرضوا عنه تركوا القليل رغبة في الكثير ليس للزهاد خروج عن هذا المقام في الزهد فإن خرجوا فلم يخرجوا من كونهم زهادا بل من مقام آخر و قد ينطلق اسم الزهد في اصطلاح القوم على ترك كل ما سوى اللّٰه من دنيا و آخرة كأبي يزيد سئل عن الزهد فقال ليس بشيء لا قدر له عندي ما كنت زاهدا سوى ثلاثة أيام أول يوم زهدت في الدنيا و الثاني زهدت في الآخرة و ثالث يوم زهدت في كل ما سوى اللّٰه فنوديت ما ذا تريد فقلت أريد أن لا أريد لأني أنا المراد و أنت المريد فجعل ترك كل ما سوى اللّٰه زهدا

[رجال الماء]

و منهم رضي اللّٰه عنهم رجال الماء و هم قوم يعدون اللّٰه في قعور البحار و الأنهار لا يعلم بهم كل أحد أخبرني أبو البدر التماشكي البغدادي و كان صدوقا ثقة عارفا بما ينقل ضابطا حافظا لما ينقل عن الشيخ أبي السعود بن الشبلي إمام وقته في الطريق قال كنت بشاطئ دجلة بغداد فخطر في نفسي هل لله عباد يعبدونه في الماء قال فما استتممت الخاطر إلا و إذا بالنهر قد انفلق عن رجل فسلم علي و قال نعم يا أبا السعود لله رجال يعبدون اللّٰه في الماء و أنا منهم أنا رجل من تكريت و قد خرجت منها لأنه بعد كذا و كذا يوما يقع فيها كذا و كذا و يذكر أمرا يحدث فيها ثم غاب في الماء فلما انقضت خمسة عشر يوما وقع ذلك الأمر على صورة ما ذكره ذلك الرجل لأبي السعود و أعلمني بالأمر ما كان



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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