الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و قرئ بكسر الحاء و هو الاسم و بفتحها و هو المصدر فمن فتح وجب عليه أن يقصد البيت ليفعل ما أمره اللّٰه به أن يفعله عند الوصول إليه في المناسك التي عين اللّٰه له أن يفعلها و من قرأ بالكسر و أراد الاسم فمعناه أن يراعي قصد البيت فيقصد ما يقصده البيت و بينهما بون بعيد فإن العبد بفتح الحاء يقصد البيت و بكسرها يقصد قصد البيت فيقوم في الكسر مقام البيت و يقوم في الفتح مقام خادم البيت فيكون حال العبد في حجه بحسب ما يقيمه فيه الحق من الشهود و اللّٰه المرشد و الهادي لا رب غيره

[اطلبونى في قلوب العارفين بى]

و لما كان قصد البيت قصدا حاليا لأنه يطلب بصورته الساكن فلله على الناس أن يجعلوا قلوبهم كالبيت تطلب بحالها أن يكون الحق ساكنها كما قال اطلبوني في قلوب العارفين بي فهذا معنى الكسر فيه و هو الاستعداد بالصفة التي ذكر اللّٰه إن القلب يصلح له تعالى بها و من فتح فوجب عليه أن يطلب قلبه ليرى فيه آثار ربه فيعمل بحسب ما يرى فيه من الآثار الإلهية و هذا حال غير ذلك فبالكسر يقصد اللّٰه و بالفتح يقصد القلب لما ذكرناه

(وصل في فصل شروط صحة الحج)

لا خلاف إن من شرط صحته الإسلام إذ لا يصح ممن ليس بمسلم الإسلام الانقياد إلى ما دعاك الحق إليه ظاهرا و باطنا على الصفة التي دعاك أن تكون عليها عند الإجابة فإن جئت بغير تلك الصفة التي قال لك تجيء بها فما أجبت دعاء الاسم الإلهي الذي دعاك و لا أنقدت إليه

[هل الدعوة من اللّٰه تقع على ذات العبد أو على صفته]

و هنا علم دقيق و هل الدعوة كانت من اللّٰه على المجموع و هو عينك و عين الصفة أو المقصود من هذا الدعاء عين الصفة و أنت بحكم التبع لكون هذا الوصف الخاص لا يقوم بنفسه فما تكون أنت المطلوب و لا بد لك من اسم يكون لك من تلك الصفة يناديك به أو تكون أنت المدعو من حيث عينك و الصفة تبع ما هي المقصود في الدعاء لأنها لم يذكر لها عين في هذا الدعاء الخاص فمن راعى من العارفين العين لا عين الصفة لكونه تعالى قال ﴿وَ لِلّٰهِ عَلَى النّٰاسِ﴾ [آل عمران:97]



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