الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

«قال الحق تعالى كنت سمعه و بصره و رجله و يده و لسانه» عند ما يسمع و يبصر و يتكلم و يبطش و يسعى يقول اجعلني نورا يهتدي بي كل من رآني في ظلمات بر ظاهره و بحر نفسه و باطنه فأعطاه القرآن و أعطانا الفهم فيه فإن هذه المنحة من أعلى المنح في رتبة هي أسنى المراتب و معناه غيبني عني و كن أنت بوجودي فيرى بصري كل شيء بك و يسمع سمعي كل مسموع بك فإن نور كل عضو إدراكه و هكذا جميع ما فصله و لكن بنور يقع به التمييز بين الأنوار و لذلك نكره في كل عضو و في نفسه و ذاته فيتميز نور الشمال من نور اليمين و نور الفوق من نور التحت و كذلك أنوار القوي و الجوارح ثم أقمني بعد هذا في عين الجمع و الوجود فتتحد الأنوار بأحدية العين فإن لم أكن هناك فبجعلك إياي نورا و إن كنت هناك فبجعلك في نورا أهتدى به في ظلمات كوني

(فصل بل وصل فيما يقول المصلي بين السجدتين في الصلاة من الدعاء)

[دعاء ما بين السجدتين في الصلاة]

يقول المصلي إذا جلس بين السجدتين في الصلاة اللهم اغفر لي و ارحمني و ارزقني و اجبرني و اهدني و عافني و اعف عني يقول العارف استرني و استر من أجلي استرني من المخالفات حتى لا تعرف مكاني فتقصدني نفسك عني إذ قد قلت إن سبحاتك محرقة أعيان كل موصوف بالوجود و إن كان وجودك و لكن كما أثر في الممكن صفة الوجود و لم يكن بالوجود موصوفا كذلك أثر نسبته إلى الممكن إن قيل فيه بوجود و إن كان مقيدا بالحدوث حادث و لكن الحضرة الإلهية موصوفة بالغيرة على وجودها من أجل دعوى هذا المدعي فلو لم تصدر منه الدعوى لما تسلط عليه فلا بد إذا ارتفعت الحجب أن تحرق سبحات ما أدركه البصر من الخلق يعني الطبيعي فإن عالم الأمر أنوار قلما يحترق بل يندرج في النور الأعظم فإن عالم الأمر ما عنده دعوى فيحترق عالم الخلق فيصير رمادا فما ألحقه بالعدم فبقي رمادا لا عودي له فاذن ما أعدمت سوى الدعوى بإحالة العين التي أعطى استعدادها الدعوى إلى عين ما لها دعوى و قوله و ارحمني برحمة الوجوب التي لا تحصل إلا بعد رحمة الامتنان بما أعطيتني من التوفيق لتحصيل رحمة الوجوب حتى أكون كل شيء وسعته رحمتك فيطلب العارف رحمة الامتنان في عين الوجوب بالتوفيق للعمل الصالح الموجب لرحمة الاختصاص فيريد أخذها من عين المنة التي يطلبها إبليس و أشياعه من الجن و الإنس مع وصف هذا العارف بالعصمة و الحفظ عن المخالفة و الخذلان الموجب للحرمان ثم يقول و ارزقني يعني من غذاء المعارف الذي يحيا به قلبي كما رزقتني من غذاء الجسوم بما أبقيت به جسدي الطبيعي و هيكلي ثم يقول و اجبرني الجبر لا يكون إلا بعد كسر و هو المهيض في اللسان و المهيض هو المكسور بعد جبر و هو كسر العارفين فإن العبد مكسور في الأصل بإمكانه فجبره إنما هو بأن ألحقه بالوجوب و لكن بغيره فلما أوجده بهذا الجبر كسرته المعرفة بنفسه و بربه فردته إلى إمكانه فهذا كسر بعد جبر و الجبر لا يكون إلا عن كسر فلهذا قلنا هو المهيض في اللسان كما أيضا يقول و اجبرني يعني أوقفني على جبري في اختياري فإن العبد مجبور في اختياره ﴿وَ مٰا تَشٰاؤُنَ إِلاّٰ أَنْ يَشٰاءَ اللّٰهُ رَبُّ الْعٰالَمِينَ﴾ [التكوير:29] يقول اللّٰه أنا مع المنكسرة قلوبهم من أجلي ثم يقول و اهدني بين لي ما نتقي و وفقني للبيان في الترجمة عنك لعبادتك بما تهبني من جوامع الكلم ليصح ورثي من رسولك صلى اللّٰه عليه و سلم فإنه قال صلى اللّٰه عليه و سلم أعطيت شيئا لم يعطهن نبي قبلي و ذكر منها فقال و أوتيت جوامع الكلم ثم يقول و عافني من أمراض القلوب التي هي أغراضها لا من أمراض الجسوم فإنك في غاية القرب عند من أمرضت جسمه فإنك قلت لي في الخبر الصحيح الذي بلغه إلى رسولك صلى اللّٰه عليه و سلم عنك أنك قلت مرضت فلم تعدني فأقول لك و كيف تمرض و أنت رب العالمين فقال صلى اللّٰه عليه و سلم إنك تقول مجيبا لي إن عبدي فلانا مرض فلم تعده أما أنك لوعدته لوجدتني عنده و من أنت عنده سبحانك فما شقي و ما أمرضت عبدك إلا لتعوده و تكون عنده فمن أراد أن يجدك فليعد المرضى سبحانك تسبيحا لا ينبغي إلا لك ثم يقول و اعف عني يقول كثر خيرك لي و قلل بلاءك عني أي قلل ما ينبغي أن يقلل و كثر ما ينبغي أن يكثر و ليس إلا عفوك عن خطيئتي التي طلبت منك أن تسترني عنها حتى لا تصيبني فاتصف بها و العفو من الأضداد يطلق بإزاء الكثرة و القلة فتب عني يا رب فإني لا أستطيع التحرك إلى ما أمرتني بعمله لزمانتي مع إرادة التحرك



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