الفتوحات المكية

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و هي الأسباب التي وجدتم عندها ثم قال لمن يرى إنا وجدنا بالأسباب لا عندها ﴿فَلاٰ تَجْعَلُوا لِلّٰهِ أَنْدٰاداً وَ أَنْتُمْ تَعْلَمُونَ﴾ [البقرة:22] أنه أوجد الأسباب و أوجدكم عندها لا بها فيقول عند ذلك أشهد أن لا إله إلا اللّٰه أي لا خالق إلا اللّٰه فينفي ألوهية كل من ادعاها لنفسه من دون اللّٰه و أثبتها لمستحقها لو ادعاها مع اللّٰه كالمشرك فشهد بذلك لله عقلا و شرعا و حسا و معنى هذا كله مع نفسه كمتصور الدليل أولا ثم يرفع بها صوته ليسمع غيره من متعلم و مدع و جاهل و غافل عن قوله تعالى ﴿اَلرَّحْمٰنُ عَلَّمَ الْقُرْآنَ﴾ و أمثاله مثل ﴿خَلَقَ الْإِنْسٰانَ عَلَّمَهُ الْبَيٰانَ﴾ فقطع حكم لأسباب فهذا معنى الشهادة و تثنيتها و تربيعها

[الشهادة بالرسالة المحمدية شهادة بالتوحيد عن طريق القربة]

و كذلك قوله أشهد أن محمدا رسول اللّٰه و هو أنه لما تشهد بالتوحيد بما أعطاه الدليل شهد به علما لا على طريق القربة لأن الإنسان من حيث عقله لا يعلم أن التلفظ بذلك و أن النظر في معرفة ذلك يقرب من اللّٰه و إنما حظه أن يعلم أن نفسه تشرف بصفة العلم على من يجهل ذلك و أن التصريح به و بكل دليل على مثل هذا العلم على جهة تعليم من لا يعلم و إرداع المعاند تشريفا لهذا النفس على نفس من ليس له ذلك لأنه لا حكم للعقل في اتخاذ شيء قربة إلى اللّٰه فجاء الرسول من عند اللّٰه فأخبره أن يقول ذلك و أن ينظر في ذلك أن يخفيه في نفسه و يسره و في التعليم و الإرداع للغير إذا أعلن به أن يكون ذلك على طريق القربة إلى اللّٰه فيكون مع كونه علما عبادة فيقول العالم المؤمن إذا أذن أو قال مثل ما يقول المؤذن أشهد أن محمدا رسول اللّٰه علما و عبادة و يقولها العامي تقليدا و تعبدا و التثنية في هذه الشهادة الرسالية و التربيع و الحكم فيها على حكم شهادة التوحيد سواء في المراتب التي ذكرناها سواء فإن ثلث كأذان البصريين الأربع الكلمات على نسق واحد في كل مرة فهو أن يقولها في المرة الأولى علما و في المرة الثانية تعليما لأنه معلن و في المرة الثالثة عبادة فهي كلها علم و تعليم و عبادة فافهم و ما خالف البصريون الكوفيين و الحجازيين و المدنيين إلا في هذا أعني التثليث و النسق و كل سنة و الإنسان مخبر يؤذن بأي صفة شاء من ذلك كله و هو مذهبنا كالروايات المختلفة في صلاة الكسوف و غير ذلك

[الحيعلتان نداء بالإقبال على مناجاة الرب]

ثم إن اللّٰه شرع لنا في الأذان بعد الشهادتين أن نقول حي على الصلاة مثنى ندعو بالواحدة نفسي و ندعو بالثانية غيري و معناه أقبلوا على مناجاة ربكم فتطهروا و ائتوا المساجد بالمرة الواحدة و من كان في المسجد يقول له في المرة الثانية حين يثنيها طهروا قلوبكم و احضروا بين يدي ربكم فإنكم في بيته قصدتموه من أجل مناجاته و كذلك قوله حي على الفلاح بالاعتبارين أيضا و التفسيرين في المرتين يقول للخارج و الكائن في المسجد و لنفسه و لغيره أقبلوا على ما ينجيكم فعله من عذابه بنعيمه و من حجابه بتجليه و رؤيته و أقبلوا بالثانية من حي على الفلاح على ما يبقيكم في نعيمكم و لذة مشاهدتكم



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