الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

و من كان يطلب منه هذه الحالة في ذلك الموقف الكريم و المشهد الخطير العظيم كيف لا يغتسل و يتطهر في باطنه و قلبه عن التعلق في معرفته بربه بغيره فيزيل عنه قذر مشاهدة الأغيار و درنها بعلم الحق بالحق دون علمه بنفسه إذ لا دليل عليه إلا هو لأن المعرفة تتعدى إلى مفعول واحد و أنت في عرفة و العلم يتعدى إلى مفعولين و لهذا يحصل لصاحب هذا المشهد عند العلمين إذا خرج من عرفة يريد المزدلفة و هي جمع يحصل له علم آخر يكون معلومه اللّٰه كما كان معلومه في عرفات الرب تعالى و هذا المفعول الواحد الحاصل لك في هذا اليوم هو علمك بربك لا بنفسك فتعرف الحق بالحق فيكون الحق الذي اغتسلت به يعطي تلك المعرفة به و يكون المغتسل منه اسم مفعول عين نفسك في دعواها في معرفة ربها بنفسها من طريق التعمل في تحصيلها و أين الدليل من الدليل هيهات و عزته ما تعرفه إن عرفته إلا به فافهم فهذا غسلك للوقوف بعرفة إن وفقت له و اللّٰه المؤيد و الملهم

(باب الاغتسال لدخول مكة زادها اللّٰه تشريفا)

اعلم أن دخول مكة هو القدوم على اللّٰه في حضرته فلا بد من تجديد طهارة لقلبك مما اكتسبه من الغفلات من زمان إحرامك من الميقات ظاهرا بالماء و باطنا بالعلم و الحضور فطهارة الظاهر الاغتسال بالماء عبادة و تنظيفا و طهارة الباطن و هو القلب بالتبري طلبا للولاء فإنه لا ولاء للحق إلا بالبراءة من الخلق حيث كان نظرك إليهم بنفسك لا بالله

[الحضور الدائم مع اللّٰه و الاغتسال لدخول مكة]

فمن كان حاله الحضور الدائم مع اللّٰه لم يغتسل لدخول مكة إلا الغسل الظاهر بالماء لإقامة السنة و أما لباطن فلا إلا عند رؤية البيت فإنه يتطهر باطنا بحياء خاص لمشاهدة بيته الخاص كذا و الطواف به الذين هم الطائفون كالحافين



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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