الفتوحات المكية

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و كان أصل هذا أن الممكنات في حال عدمها سألت الأسماء الإلهية سؤال حال ذلة و افتقار و قالت لها إن العدم قد أعمانا عن إدراك بعضنا بعضا و عن معرفة ما يجب لكم من الحق علينا فلو أنكم أظهرتم أعياننا و كسوتمونا حلة الوجود أنعمتم علينا بذلك و قمنا بما ينبغي لكم من الإجلال و التعظيم و أنتم أيضا كانت السلطنة تصح لكم في ظهورنا بالفعل و اليوم أنتم علينا سلاطين بالقوة و الصلاحية فهذا الذي نطلبه منكم هو في حقكم أكثر منه في حقنا فقالت الأسماء إن هذا الذي ذكرته الممكنات صحيح فتحركوا في طلب ذلك فلما لجئوا إلى الاسم القادر قال القادر أنا تحت حيطة المريد فلا أوجد عينا منكم إلا باختصاصه و لا يمكنني الممكن من نفسه إلا أن يأتيه أمر الآمر من ربه فإذا أمره بالتكوين و قال له كن مكنني من نفسه و تعلقت بإيجاده فكونته من حينه فالجئوا إلى الاسم المريد عسى أنه يرجح و يخصص جانب الوجود على جانب العدم فحينئذ نجتمع أنا و الآمر و المتكلم و نوجدكم فلجئوا إلى الاسم المريد فقالوا له إن الاسم القادر سألناه في إيجاد أعياننا فأوقف أمر ذلك عليك فما ترسم فقال المريد صدق القادر و لكن ما عندي خبر ما حكم الاسم العالم فيكم هل سبق علمه بإيجادكم فنخصص أو لم يسبق فإنا تحت حيطة الاسم العالم فسيروا إليه و اذكروا له قضيتكم فساروا إلى الاسم العالم و ذكروا ما قاله الاسم المريد فقال العالم صدق المريد و قد سبق علمي بإيجادكم و لكن الأدب أولى فإن لنا حضرة مهيمنة علينا و هي الاسم اللّٰه فلا بد من حضورنا عنده فإنها حضرة الجمع فاجتمعت الأسماء كلها في حضرة اللّٰه فقال ما بالكم فذكروا له الخبر فقال أنا اسم جامع لحقائقكم و إني دليل على مسمى و هو ذات مقدسة له نعوت الكمال و التنزيه فقفوا حتى أدخل على مدلولي فدخل على مدلوله فقال له ما قالته الممكنات و ما تحاورت فيه الأسماء فقال اخرج و قل لكل واحد من الأسماء يتعلق بما تقتضيه حقيقته في الممكنات فإني الواحد لنفسي من حيث نفسي و الممكنات إنما تطلب مرتبتي و تطلبها مرتبتي و الأسماء إلهية كلها للمرتبة لا لي إلا الواحد خاصة فهو اسم خصيص بي لا يشاركني في حقيقته من كل وجه أحد لا من و الأسماء و لا من المراتب و لا من الممكنات

[الميزان المعلوم و الحد المرسوم و الإمام المعصوم]



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