الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 1139 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

﴿أَوْ قٰالَ أُوحِيَ إِلَيَّ﴾ [الأنعام:93] فأضاف القول إليه و كذلك قوله إلي و من أنا حتى أقول إلي إذ اللّٰه هو المتكلم و هو السميع ثم قال ﴿سَأُنْزِلُ مِثْلَ مٰا أَنْزَلَ اللّٰهُ﴾ [الأنعام:93] و ما أقول أنا ذلك بل الإنزال كله من اللّٰه فإذا تفقه في نفسه في هذا كله ﴿اِفْتَرىٰ عَلَى اللّٰهِ كَذِباً﴾ [الأنعام:21] و ﴿زُيِّنَ لَهُ سُوءُ عَمَلِهِ فَرَآهُ حَسَناً﴾ [فاطر:8]

[الشيطان لا يأتي إلى الإنسان إلا بما هو الغالب عليه]

فهذا أصل صحيح لهاتين الطائفتين قد ألقاه الشيطان إليهما و تركه عندهما و بقي يتفقه في ذلك فقها نفسيا فإن لم يكن الإنسان على بصيرة و تمييز من خواطره حتى يفرق بين إلقاء الشيطان و إن كان خيرا و بين إلقاء الملك و النفس و يميز بينهما ميزا صحيحا و إلا فلا يفعل فإنه لا يفلح أبدا فإن الشيطان لا يأتي إلى كل طائفة إلا بما هو الغالب عليها و ليس غرضه من الصالحين إلا أن يجهلوه في الأخذ عنه فإذا جهلوه و نسبوا ذلك إلى اللّٰه و لم يعرفوا على أي طريق وصل إليهم كأنه قنع منهم بهذا القدر من الجهل و عرف أنهم تحت سلطانه فلا يزال يستدرجه في خيريته حتى يتمكن منه في تصديق خواطره و أنها من اللّٰه فيسلخه من دينه كما تنسلخ الحية من جلدها أ لا ترى صورة الجلد المسلوخ منها على صورة الحية كذلك هذا الأمر*

[العلم و الإيمان و لكن السعادة في الإيمان]

جاء إبليس إلى عيسى عليه السلام في صورة شخص شيخ في ظاهر الحس لأن الشيطان ليس له إلى باطن الأنبياء عليهم السلام من سبيل فخواطر الأنبياء عليهم السلام كلها إما ربانية أو ملكية أو نفسية لا حظ للشيطان في قلوبهم و من يحفظ من الأولياء في علم اللّٰه يكون بهذه المثابة في العصمة مما يلقى لا في العصمة من وصوله إليه فالولي المعتنى به على علامة من اللّٰه فيما يلقي إليه الشيطان و سبب ذلك أنه ليس بمشرع و الأنبياء مشرعون فلذلك عصمت بواطنهم



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!