الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

﴿نَهَى النَّفْسَ عَنِ الْهَوىٰ﴾ [النازعات:40] أن يكون هواها لا تأته من حيث ما هو هواها بل من حيث ما هو إرادة الحق و أنت لا تدري فإذا نهى النفس عن الهوى من حيث إنه مذموم لا من حيث ما أشرنا إليه فإن اللّٰه قد ستر عنه العلم الصحيح في ذلك فعبر عنه بجنة المأوى أي الستر الذي آوى إلى ظله فهو و إن كان مدحا فمن حيث إنه علق الذم بالهوى فلو عرف أنه ما دفع الهوى إلا بالهوى و إن الهوى ما هو غير عين الإرادة و كل مراد إذا حصل لمن أراده فهو ملذوذ للنفس فكل إرادة فهي هوى لأن الهوى تستلذه النفوس و ما لا لذة لها فيه فليس بهواها و ما سمي هوى إلا لسقوطه في النفس و ليس سقوطه إلا منك في إرادة ربه فلا أعلى من الهوى لأنه يردك إلى الحق فلا تشهد غيره في التذاذه بذلك إلا أن الخلق حجبوا عن هذا الإدراك فهم مع الإرادة فيهم و يسمونها هوى و ليست بهوى و الهوى للعارفين و الإرادة للعامة و الذم لهم في الهوى فهم له عاملون

[الحق للباطل مزهق و النظر إليه مصعق]

و من ذلك الحق للباطل مزهق و النظر إليه مصعق

قذفك بالحق على الباطل *** يدمغه فهو به زاهق

و إنما يعرف ما قلته *** من هو في أحواله صادق

فهو ظلوم و الهوى مهلك *** و غيره مقتصد سابق

يسبقه فكل من جاءه *** فإنه في إثره لاحق

فإن أقل هادانا عارف *** و إن أقل حادانا سائق

من حيث عيني فأنا ناظر *** و من لساني فأنا ناطق

أحوالنا تخبر عن سرنا *** بأنه في ذاته عاشق

قال لا تغالط نفسك حق و خلق لا يجتمعان فانظر مشهودك إن كان حقا فما تنظره إلا بعينه فإنك لا تدركه بغيره فما ثم خلق في حقك و في وقتك إذا كان وقتك الحق و إن كان خلقا فما تنظر إليه إلا بعين الخلق و الحكم تابع للنظر و لا يحكم النظر إلا بما يعطيه لمنظور من ذاته فمن المحال أن يكون المنظور إليه قائما فيدركه قاعدا أو على لون ما إن كان من المتلونات فيدركه على غير اللون الذي هو عليه ذلك المنظور و هذا سائغ في كل قوة موضع الطعم إذا غلبت عليه المرة الصفراء قال في العسل إذا ذاقه إنه مر و العسل ما باشر موضع الطعم و إنما باشرته المرة الصفراء فصدق في المرارة و كذب في نسبة المرارة إلى العسل فاعلم ذلك

[من أجاب أجيب فلم لا يستجيب]

و من ذلك من أجاب أجيب فلم لا يستجيب

لما أجبت دعاة الحق كنت لهم *** مؤيدا و بهم أيدتهم فإذا



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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