Mekkeli Fetihler: futuhat makkiyah

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(وفق مخطوطة قونية)

﴿اَلْحَمِيدُ﴾ [ابراهيم:1] الذي يرجع إليه عواقب الثناء و ما يثنى عليه إلا بنا من حيث وجودنا و أما تنزيهه عما يجوز علينا فما وقع الثناء عليه إلا بنا فهو غني عنا بنا لأن كونه غنيا إنما هو غناه عنا فلا بد منا لثبوت هذا الغناء له نعتا و من أراد أن يقرب عليه تصور هذا الأمر فلينظر إلى ما سمي به نفسه من كل اسم يطلبنا فلا بد منا فلذا لم يكن الغناء عنا إلا بنا إذ حكم الألوهية بالمألوه و الربوبية بالمربوب و القادر بالمقدور فللربوبية سر لو ظهر لبطلت الربوبية كما إن للربوبية أيضا سرا لو ظهر لبطلت النبوة و هو ما يقتضيه النظر العقلي بأدلته في الإله إذا تجلى الحق فيه بطلت النبوة فيما أخبرت به عن اللّٰه مما لا تقبله العقول من حيث أدلتها و قد دلت على صدق المخبر فلها الرد و القبول فتقبل الخبر الوارد و ترد الفهم فيه الذي يقع به المشاركة بين اللّٰه و بين خلقه و إذا رددت المفهوم الأول فقد بطلت النبوة في حقها التي ثبتت عند السوداء و أمثالها و النبوة لا تتبعض فإذا رد شيء منها ردت كلها كما قال اللّٰه تعالى في حق من قال ﴿نُؤْمِنُ بِبَعْضٍ وَ نَكْفُرُ بِبَعْضٍ وَ يُرِيدُونَ أَنْ يَتَّخِذُوا بَيْنَ ذٰلِكَ سَبِيلاً أُولٰئِكَ هُمُ الْكٰافِرُونَ حَقًّا﴾ فرجح جانب الكفر في الحكم على جانب الايمان و إنما رجح حكم الكفر لأحدية المخبر و صدقه عنده فيما أخبر به مطلقا من غير تقييد لاستحالة الكذب عليه فلا بد له من وجه صحيح فيما جاء به مما يرده العقل و لذلك المؤمن يتأول إذا كان صاحب نظر و إذا عجز علم إن له تأويلا يعجز عنه لا يعلمه إلا اللّٰه فيسلمه لله و لكن عن تأويل مجهول ما هو على مفهوم لفظه الظاهر و عند أهل اللّٰه كل الوجوه الداخلة تحت حيطة تلك الكلمة صحيحة صادقة ف‌



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