Mekkeli Fetihler: futuhat makkiyah

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(وفق مخطوطة قونية)

﴿بَشَراً سَوِيًّا﴾ [مريم:17] فتجلى في صورة إنسان كامل فنفخ و هو نفخ الحق كما قال على لسان عبده سمع اللّٰه لمن حمده فلما تبعته هذه القوي كان منها القوة المفكرة أعطيت للإنسان لينظر بها في الآيات في الآفاق و في نفسه ليتبين له بذلك أنه الحق : و اختلفت الأمزجة فلا بد أن يختلف القبول فلا بد أن يكون التفاضل في التفكر فلا بد أن يعطي النظر في كل عقل خلاف ما يعطي الآخر حتى يتميز في أمر و يشترك مع غيره في أمر فهذا سبب اختلاف المقالات فيحكم الرب بين أصحاب هذه المقالات بما يجيء به الشرع المنزل فتبقى العقول واقفة في أدلتها و رجع اختلاف نظرها في المواد الشرعية بعد ما كانت أولا ناظرة بالنظر العقلي و ذلك ليس إلا للمؤمنين و المؤمنات خاصة قالوا قفون مع حكم الرب في ذلك بين المتنازعين هم المؤمنون و لهم عين الفهم فاختلفوا مع الاتفاق فاختلافهم في المفهوم من هذا الذي حكم به الرب في حق الحق و هذا هو الحق الذي نصبه الشرع للعباد و بما سمي به نفسه نسميه و بما وصف به ذاته نصفه لا نزيد على ما أوصل إلينا و لا نخترع له أسماء من عندنا و أما نزاع غير المؤمنين في اختلاف عقائدهم فيكون الشارع واحدا منهم في كونه نزع في الحق منزعا لم ينزعوه لكونهم غير مؤمنين فالحاكم بينهما أعني بين الشرع و العقلاء غير المؤمنين إنما هو اللّٰه بصور التجلي به يقع الفيصل بينهما و لكن في الدار الآخرة لا هنا فإن في الدار الآخرة يظهر حكم الجبر فلا يبقى منازع هناك أصلا و يكون الملك هناك لله الواحد القهار و تذهب الدعاوي من أربابها و تبقي المؤمنون هنالك سادات الموقف على كل من في الموقف و أما النظر في مصالح الممكنات الذي لهذه الحضرة

[الرب ينظر بالأولوية في وجود الممكن و عدمها]



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